क्रोंचे का अभिव्यंजनावाद
डॉ.अवधेश कुमार पाण्डेय
अभिव्यंजनावाद क्रोचे की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा
आधार है जिसका विस्तृत विवेचन ‘ईस्थेटिक’ नामक ग्रंथ में हुआ है। 1900 ई. में नेपल्स में सौंदर्यशास्त्र पर क्रोचे ने तीन भाषण दिए। उन्हीं का
विस्तृत रूप यह ग्रंथ है। ग्रंथ का पूरा नाम है – ‘Aesthetic
as a science of expression and general linguistic’.
अभिव्यंजनावाद एक कला सिद्धांत है, जिसका संबंध
सौन्दर्यशास्त्र से है न कि साहित्यिक आलोचना से। क्रोचे की मान्यता है कि कलाकार
अपनी कलाकृति में अपने अंतर की अभिव्यक्ति करता है। यह अभिव्यक्ति बिंबात्मक होती
है, जिसका स्वरूप उसके हृदय में विद्यमान होता है। बाह्य जगत से उसका कोई संबंध
नहीं होता है। बाह्य जगत केवल बिंब निर्माण में सहायक हो सकता है। क्रोचे ने ज्ञान
के दो रूप माने हैं –
1.
सहजानुभूति (Intution)
2.
विचारात्मक (Concept)
इनमें प्रथम का ज्ञान मनःशक्ति द्वारा उपलब्ध
कराया जाता है जबकि द्वितीय ज्ञान बुद्धि का विषय है। सहजानुभूति को किसी का सहारा
नहीं चाहिए। उसके लिए आवश्यक नहीं है कि वह दूसरे की आंखें उधार ले; उसकी आंखें
स्वयं काफी तेज हैं। सहजानुभूति को ही क्रोचे अभिव्यंजना कहता है।
कविता वह है जो अन्तःप्रेरणा से संचालित हो।
Intution is expression (अन्तःप्रेरणा ही अभिव्यंजना है)। expression ही communication में बदल जाती है। रचना एक सृजन है, वह अनुकरण नहीं है। जिस कवि के पास Intution
नहीं है; वह कवि नहीं है।
क्रोचे कलाकृति की एकता या अखंडता में विश्वास
करता है। कृति को विभिन्न अवयवों में विभाजित करके देखने से उसका प्रभाव उसी तरह
समाप्त हो जाता है जैसे किसी जीव को हृदय, मस्तिष्क, धमनियों और मांसपेशियों में
विभाजित करके देखने से जीवित प्राणी शव में बदल जाता है। कला सदैव आन्तरिक होती
है। कुछ क्षण ऐसे होते हैं जिन्हें बांधने के लिए कलाकार विह्वल हो जाता है और तब
वह रंग, कूची, शब्द, प्रस्तरखंड आदि का सहारा लेकर उस आन्तरिक अनुभूति को स्थूल
रूप देता है। बाह्यकरण की इस प्रक्रिया द्वारा वह सहजानुभूतियों को नष्ट होने से
बचाता है। आचार्य शुक्ल ने अभिव्यंजनावाद को भारतीय वक्रोक्ति सिद्धांत का विलायती
उत्थान कहा है।