रविवार, 22 जून 2025

सिद्ध साहित्य, siddha sahitya

 

सिद्ध साहित्य

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

सिद्ध संप्रदाय को हिंदू धर्म की परंपरा का हिंदू धर्म से प्रभावित एक धार्मिक आंदोलन माना जाता है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था व मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें सिद्ध कहा जाने लगा। सिद्धों ने अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं के प्रचार हेतू जो साहित्य रचा उसको सिद्ध साहित्य कहा गया। बौद्ध परंपरा से संबंधित होने के कारण वे वैदिक मान्यताओं और वर्ण व्यवस्था का तीव्र खंडन करते हैं और नैरात्म भावना, काया योग और सहज शून्य की साधना का वर्णन करते हैं। उनका दावा है कि जो पंडित लोग सारे वेद व पुराण पढ़ चुके हैं। वे भी इस सत्य को नहीं जानते हैं कि बुद्ध या परम तत्व हमारे भीतर ही है –

“पंडित सअल सत्य वक्खाणअ।

देहहिं बुद्ध बसन्त ण जाणअ।।“

 - सरहपा

जैसे भौंरा पके हुए बेल के बाहर-बाहर घूमता है और बेल का रसास्वादन नहीं कर पाता। उसी प्रकार पंडित लोग आगम, वेद पुराण को ढोते रहते हैं और उनका सारतत्व नहीं जान पाते

“आगम-वेअ पुराणे पण्डित मान बहन्ति।

पक्क सिरिफल अलिम जिमि वाहेरित भ्रमयंति।।“

-    कण्हपा

सिद्धों ने आडंबरों का विरोध किया और शून्य पर आधारित साधना प्रक्रिया का समर्थन किया। इनका मानना है कोई व्यक्ति तभी सिद्ध बन सकता है जब वह सभी प्रकार के आकर्षण व मोह से परे हो जाए। सरहपा कहते हैं –

“जहि मण पवण न संचरई, रवि ससि वाह पवेस।

ताहि बढ़ं चित्त विसाम करू, सरहें कहिउ उएस।।"

(सरहपा कहते हैं कि जहां मन व पवन की गति भी नहीं है। जहां सूर्य और चंद्रमा को भी प्रवेश नहीं मिल सकता; वहीं अपने मन को ले जाओ ताकि चित्त को विश्राम मिले)

सिद्धों ने साधना मार्ग के रूप में पंचमकार पद्धति को स्वीकार किया है। पंचमकार का अर्थ है - मत्स्य, मदिरा, मांस, मुद्रा तथा मैथुन। इनकी मान्यता थी कि सुखों को चरम स्तर पर भोगकर मन को ऐसी अवस्था में लाया जा सकता है, जहां वह हर आकर्षण से मुक्त हो जाए। सुखों का भोग साधन के रूप में है, साध्य के रूप में नहीं। इन्होंने गुरु को भी अत्यधिक महत्व दिया क्योंकि सतगुरु के माध्यम से ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अलावा समस्त बाह्यआडंबरों का निषेध इनकी प्रमुख विशेषता है।

व्रजयानियों को ही सिद्ध कहा गया है। सिद्धों की संख्या 84 मानी गयी है। राहुल सांकृत्यायन और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने तो 84 सिद्धों के नामों का भी उल्लेख किया है। यह लोग अपने नाम के पीछे 'पा' जोड़ते थे; जैसे - सरहपा, लुइपा, सबरपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्करिपा। इन सिद्धों के पीछे लगा 'पा' शब्द सम्मानसूचक "पाद" शब्द का विकृत रूप है। इनमें से 14 सिद्धों की रचनाएं ही अभी तक उपलब्ध हैं। सिद्ध साहित्य का रचनाकाल सातवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक है। इन सिद्ध कवियों की रचनाएं प्रमुखतः दो काव्य रूपों में मिलती है - 'दोहाकोष' और 'चर्यापद'। सिद्धाचार्यों द्वारा लिखित दोहों का संग्रह दोहाकोष के नाम से जाना जाता है तथा उनके द्वारा रचित पद 'चर्यापद' या 'चर्यागीत' के नाम से प्रसिद्ध है।

सिद्धों का शिल्प पक्ष साहित्यिक सूक्ष्मताओं से युक्त नहीं है क्योंकि ये लोग कवि नहीं थे बल्कि अपने संप्रदाय की मान्यताओं का प्रचार करने के लिए ही साहित्य रचते थे। इनका सारा साहित्य मुक्तक के रूप में है जो चर्यापद और दोहाकोषों में संकलित है। इनकी भाषा अर्धमागधी अपभ्रंस थी जिससे आगे चलकर पूर्वी हिंदी का विकास हुआ। कहीं-कहीं इन्होंने अपनी आंतरिक अनुभूतियों को एक विशेष प्रतीक भाषा में व्यक्त किया जिसे संधा भाषा कहते हैं। इनका शिल्प में महत्वपूर्ण योगदान छंद के स्तर पर है। इन्होंने दोहा, सोरठा जैसे छंदों का प्रयोग किया। सिद्ध साहित्य अर्धमागधी अपभ्रंस भाषा में लिखा गया है। सिद्धों की रचनाएं मूलतः उपदेशपरक, नीतिपरक एवं रहस्यपरक हैं।

सिद्धों का संबंध बौद्ध धर्म की व्रजयान शाखा से था। सिद्धों की संख्या 84 मानी गयी है। प्रथम सिद्ध सरहपा (8वीं शताब्दी) सहज जीवन पर बहुत अधिक बल देते थे। इन्हें ही सहजयान का प्रवर्तक कहा गया है। सिद्धों ने नैरात्म भावना, काया योग, सहज शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीव्र प्रहार किया है। इन्होंने संधा भाषा-शैली में रचनाएं की हैं। संधा भाषा वस्तुतः अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीक भाषा है इसलिए प्रतीकार्थ खुलने पर ही यह समझ में आती है।

सरहपा को सरहपाद, राहुलभद्र आदि कई नामों से जाना जाता है। इनका समय 769 ई. के लगभग स्वीकार किया जाता है। माना जाता है कि इन्होंने 32 ग्रंथों की रचना की जिनमें 'कायाकोष', 'दोहाकोष', 'सरहपादगीतिका' तथा 'चर्यागीति-दोहाकोष' प्रमुख हैं। शबरपा, सरहपा के शिष्य थे। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध कृति है। शबरपा के शिष्य लुइपा का 84 सिद्धों में सर्वोच्य स्थान है। डोम्भिपा ने 'डोम्बि-गीतिका' लिखी। कन्हपा ने सर्वाधिक कृतियों की रचना की जिनमें 'कण्हपादगीतिका' तथा 'दोहाकोष' प्रमुख हैं।