मुगलकालीन चित्रकला
डॉ. अवधेश पान्डेय
मानव जीवन की
भाँति कला के उदय का इतिहास भी बड़ा रहस्यमय,
विराट और अज्ञात
है। अतः मन में स्वाभाविक रुप से प्रश्न उठता है कि ‘कला क्या है’? वास्तव में कला कल्याण की जननी है। इस धरती पर मनुष्य की
उदयवेला का इतिहास कला के हाथों से लिखा गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से कला का
स्वरुप विवेचन भव्य एवं विराट भावभूमि पर प्रतिष्ठित है। कला एक कृति है जो कलाकार
की अभिव्यक्ति है। यह सम्पूर्ण सृष्टि भी एक कृति है; एक अभिव्यक्ति है जिसकी रचना पुराणों के अनुसार परमेश्वर
द्वारा हुआ है। सच्चिदानन्द परमेश्वर की इस विराट सृष्टिकला में आत्मानुरुप सत्यं, शिवम् और सुंदरम्, इन त्रिविध गुणों का
समावेश है। इसलिए कला को सत्य, शाश्वत, नित्य और अनादि कहा गया है।
मानव मूलतः
सौंदर्य प्रेमी है और उसके अंदर जाग्रत इस सौंदर्य को व्यक्त करने का माध्यम है -
कला। कलाकार, कवि, शिल्पी, वास्तुकार की प्रेरणा का आधारबिंदु सदैव से एक ही रहा है और
वह है - ‘सौंदर्य’। कलाकार या कवि केवल सौंदर्य का पुजारी होता है। उसके लिए मात्र
कल्पना और अनुभूति ही सत्य है। कालीदास के अनुसार सौंदर्य का उद्देश्य पापवृत्ति
के लिए नहीं है; वह तो जीवन में सदाचार के अभ्युदय के लिए है -
‘‘यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये, न रुपमित्यत्यभिचारि
तद्वचः।’’ टालस्टाय ने भी कला का मानदंड नैतिकता को सिद्ध करते हुए लिखा है - “In
every age and in every human society there exists a religious sense of what is
good and what is bad common to the whole society and it is this religious
conception that decides the value of the feelings transmitted by art.”1 अर्थात प्रत्येक युग में तथा प्रत्येक समाज में क्या अच्छा
है? और क्या बुरा है? यह कला द्वारा
प्रतिपादित भावनाओं के मूल में निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार कला मात्र
मनोरंजन का साधन व मानव वासनाओं को व्यक्त करने का माध्यम नहीं है अपितु जीवनशीलता
का अद्भुत रस है जिसके रसास्वादन से मानव तृप्त हो जाता है।
‘कला’ शब्द की उत्पत्ति ‘कल्’ धातु में ‘अच्’ तथा ‘टाप’
प्रत्यय लगने से हुई है जिसके कई अर्थ शोभा,
अलंकरण आदि होते
हैं। वर्तमान में कला को अंग्रेजी के आर्ट (ART) शब्द का पर्याय समझा जाता है; जिसे पाँच विधाओं - संगीतकला, मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला तथा काव्यकला में वर्गीकृत किया जाता है। इन
पाँचों को सम्मिलित रुप से ललित कलायें (FINE ARTS) कहा जाता है। वास्तव में कला मानव मष्तिष्क व आत्मा की
उच्चतम् व प्रखरतम कल्पना और भावों की अभिव्यक्ति है। कला मानव को जितना
प्रसन्नचित्त व आह्लादित करने में सक्षम है;
उतनी ही मानव के
अंतःकरण को झकझोरने की क्षमता भी रखती है। कला का हर पक्ष इतना सशक्त है कि
संवेदनविहीन व्यक्ति में भी वह संवेदना का तीव्र उद्वेग उत्पन्य करने का सामर्थ्य
रखती है। अतः कला वह है जो परम्पराओं से मुक्त,
रुढ़ियों के बंधन
से आजाद, कलाकार की कल्पना और यथार्थ की स्वतंत्र
अभिव्यक्ति है। इसी कला की एक विधा चित्रकला है। चित्र - रचना एक लम्बी साधना है। उसकी सिद्धि के मार्ग बड़े
दुर्गम हैं; किंतु उसके परिणाम भी उतने श्रेष्ठ हैं।
भारतीय चित्रकला
का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। यद्यपि आधुनिक शैली की चित्रकला को अधिक पुरानी घटना
नहीं माना जाता है परंतु भारत में चित्रकला के बीज तो आदिमानव ने ही डाल दिए थे।
पाषाण काल में ही मनुष्य ने गुफा चित्रण करना आरम्भ कर दिया था जिसके परिणाम
भीमबेटका और होशंगाबाद आदि स्थानों की कंदराओं और गुफाओं से मिले हैं। इन चित्रों
में शिकार, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के दृश्य
चित्रित हैं। सिंधु घाटी सभ्यता में भवनों के ध्वस्त हो जाने के कारण चित्रकला के
प्रमाण स्पष्ट नहीं हैं। प्रथम सदी ईसा पूर्व से चित्रकला के अधिक स्पष्ट प्रमाण
मिलना शुरु हो गए। अजंता की गुफाओं में की गयी चित्रकारी कई शताब्दियों में तैयार
हुई थी, परंतु इसकी सबसे प्राचीन चित्रकारी ई0 पू0 प्रथम शताब्दी की है।
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल अजंता कला की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं - “The assurance and delicacy of life, the brilliancy of
colours, the richness of expression with buoyant feeling and pulsating life,
have rendered this art supreme for all times.”2
अजंता
चित्रकला की आधारभूमि भारतीय परंपरा का अनुसरण करते हुए बनायी गयी थी। वात्स्यायन
के कामसूत्र में चित्र के षड् अंग माने गये हैं जो निम्नलिखित श्लोक में वर्णित है
-
‘‘रुपाभेदाः प्रमाणानि भावलावन्ययोजनम्। सादृश्यं
वर्णिकाभंगं इति चित्र षडंगकम्।।’’3
अर्थात रुपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य, सादृश्य, वर्णिका भंग यह चित्र के
छः लक्षण हैं जो किसी भी चित्र में होने चाहिए। अजंता चित्रकला चूँकि विशुद्ध
भारतीय परंपरा से संबंधित थी इसलिए उसमें यह छह लक्षण दिखायी देते हैं। अजंता के
बाद के सातवीं-आठवीं शताब्दी के चित्रांकन समूचे भारतवर्ष को जैन लघु चित्रों से
जोड़ते हैं। जैन चित्रों का सबसे प्राचीनतम उदाहरण प्रारम्भिक सातवीं शताब्दी के
सित्तन नवसाल के दीवार से प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी के पश्चात जैन चित्रकला
में जैन विषयों-श्वेतांबर जैनों से संबंधित विषयों का प्रतिपादन हुआ करता था तथा
दसवीं शताब्दी से पहले दिगंबर जैनों से संबंधित विषय का प्रतिपादन होता था। जैन
मूलग्रंथ में वर्णित जैन लघु चित्रों की शैली तथा एलोरा गुफा में हिंदू मंदिरों के
दीवार चित्रों में पारस्परिक संबंध है। किंतु सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक
एलोरा के कैलाश मंदिर के चित्र तथा गणेश लेन की गुफाओं के एक छोटे समूह के चित्र
मध्यकालीन भारत की चित्रकला और मूर्तिकला पर आधारित हैं। यही आधार दक्षिण भारत में
तिरुमल्लई के दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के जैन मंदिरों में देखने को मिलती है।
इधर बंगाल और
बिहार के ताड़ के पत्तों पर हस्तलिखित लघु चित्रकला की प्राचीन बौद्ध परंपरा
तेरहवीं शताब्दी तक निरंतर फलती-फूलती रही। यह शैली जो पाल कला के नाम से विख्यात
है; इस क्षेत्र में तुर्की आक्रमण के फलस्वरुप भंग
हो गयी थी और उसके कलाकार भागकर नेपाल चले गए,
जहाँ पर वह शैली
कई सौ वर्षों तक रही। पाल चित्रकला की शैली अपनी साधारण तथा द्रुतगामी रेखाओं, परंपरागत भू-दृश्य और पेड़-पौधों के दृश्य, वास्तु-शिल्प और आकृति रचना में अजंता शैली की चित्रकला की
सुस्पष्ट विशेषताओं की याद दिलाती है। तुर्क आक्रमण के बावजूद पश्चिमी तथा उत्तरी
भारत वर्ष में लघु चित्रकला की लोकप्रिय शैली की उपेक्षा और अभाव के मध्य
पंद्रहवीं शताब्दी तक पूरे उत्तरी भारत में विभिन्य नामों यथा जैन, गुजराती एवं पश्चिमी भारतीय नाम से संबोधित हुई। डॉ.
कुमारस्वामी ने उसे ‘जैन चित्रकारी’ कहा है। एन. सी. मेहता ने उसको ‘गुजराती शैली’
नाम दिया है। नारमन ब्राउन ने उसे ‘पश्चिमी भारतीय शैली’ की संज्ञा देना अधिक पसंद
किया है; और रायकृष्ण दास ने इसे ‘अपभ्रंस’ या ‘विकृत
शैली’ नाम दिया है। कला समालोचकों के बीच अब ‘पश्चिमी भारतीय शैली’ नाम सर्वसम्मति
से स्वीकार कर लिया गया है क्योंकि इस शैली का जन्म पश्चिमी भारत में हुआ था।
सल्तनत काल (1206-1526) में स्थापत्य कला को छोड़कर अन्य ललित कलाओं के बारे में
हमारी सूची बहुत ही कम है। कहीं-कहीं दीवारों पर कुछ चित्रित अथवा अस्त्र-शस्त्र, जीवों आदि पर चित्रित चित्रकला दिखलायी देती है। पोशाकों, मिट्टी के बर्तनों, धातु के चीजों में
चित्रकारी यदा-कदा दिख ही जाती है। लेकिन चित्रकला इस्लाम में वर्जित होने के कारण
सुल्तान, अमीर, और जनसाधारण उससे दूर
रहते थे। कुरान में कहा गया है कि - ‘‘जो व्यक्ति प्राणियों के चित्र बनाता है, वह सृष्टि के रचयिता के काम में दखल देता है। कयामत के दिन
भगवान उससे कहेंगे कि तूने मेरी बराबरी करना चाहा था। अतएव अपने चित्रों में जीवन
डालकर अपना काम पूरा कर। और जब चित्रकार यह काम नहीं कर पाएगा, तब भगवान उसे नरक भेज देंगे।’’4 इसी कारण दिल्ली सल्तनत
काल में चित्रकला के क्षेत्र में विशेष प्रगति न हो सकी। सुल्तान फ़िरोजशाह तुग़लक
ने अपनी महल की दीवारों पर बनी कलाकृतियों को मिटवा दिया था। अतः व्यवस्थित रुप से
इस युग में चित्रकला का विकास न हो सका। किंतु बाद में ईरानी चित्रकला के प्रभाव
के परिणामस्वरुप मंगोलों के तैमूर वंशीय उत्तराधिकारियों ने इसे अपना लिया। और
मुगल शासक बाबर और हुमायूँ इसे भारत में ले आये। इस समय भारत में परम्परागत रुप से
चली आ रही भारतीय शैलियाँ थी। अकबर के शासन काल में भारतीय चित्रकला की ये शैलियाँ
ईरानी चित्रकला के संपर्क में आकर उनसे सामांजस्य स्थापित कर लेती हैं। इस
सम्मिश्रण के परिणामस्वरुप समय के साथ ईरानी तत्व लुप्त होने लगे और भारतीय तत्व
और लक्षण अधिक प्रधान हो गये। चित्रकला का यह नया परिवर्तित रुप मुगल चित्रकला के
नाम से प्रसिद्ध हुआ। सोलहवीं सदी में इस मुगल चित्रकला का प्रादुर्भाव हुआ और
सत्रहवीं सदी के मध्य में जहाँगीर तथा शाहजहाँ के शासन काल में यह अपने चरम
उत्कर्ष पर पहुंच गयी। मुगल साम्राज्य की नींव भारत में बाबर के साथ प्रारम्भ हुई।
बाबर जितना कुशल योद्धा था उतना ही महान कला प्रेमी। बाबर ने ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में
अपनी कलाप्रियता का उल्लेख किया है। बाबर के बाद उसका पुत्र सम्राट बना किंतु उसका
शासन काल उथल-पुथल से भरा था। शेरशाह से पराजित हुमायूँ ईरान भाग गया और वहाँ से
वह ईरानी चित्रकला से परिचित होकर वापस लौटा। ईरान से हुमायूँ दो चित्रकार ‘मीर
सैयद अली’ व ‘मंसूर’ को लेकर भारत लौटा और उन्हें ‘दास्तान-ए-अमीर-हम्जा’ को
चित्रित करने का कार्य सौंपा। यह मुगल शैली का प्रथम भव्य चित्रण था किंतु यह
हुमायूँ के शासनकाल में प्रारम्भ तो हुआ, पर पूरा 1579 ई. में अकबर के
शासन काल में हुआ। इसमें कुल मिलककर 1375 चित्र हैं। जिसे ‘शीरी
कलम’ के कई चित्रकारों की सहायता से पूर्ण किया गया। मुगल चित्रकारी शैली का
वास्तविक जन्मदाता अकबर है। ‘आइन-ए-अकबरी’ से सूचना मिलती है कि 1569 ई. में अकबर ने
तस्वीर खाना विभाग खोला और इस विभाग का अध्यक्ष उसको बनाया जिसको हुमायूँ कभी ईरान
से लेकर आया था; अर्थात ‘अब्दुल समद’ को। अकबर ने इस विभाग से
देशी-विदेशी समस्त कलाकारों को जोड़ा और निर्देश दिया कि आप लोग चित्रकारी के समस्त
बिंदुओं पर समीक्षा करें। इस समन्वय से ही अकबर के दौर में मुगल चित्रकला शैली
उभरी। जिसमें तूरानी, ईरानी और भारतीय तत्व
विद्यमान थे। इसे ही ‘अकबरी कलम’ कहा गया। मुगलकाल में अकबर ने रुढ़िवादी मुसलमानों
और उलेमाओं को अलग करके चित्रकारी को संरक्षण देने का साहस दिखाया। अबुल फ़ज़ल लिखता
है कि बादशाह की चित्रकला के प्रति विशेष रुचि थी और वह इसके संबंध में कहा करता
था कि - ‘‘अधिक संख्या में लोग चित्रकला से घृणा करते हैं, किंतु मैं ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता हूँ। क्योंकि मेरे
अनुसार एक चित्रकार के पास ईश्वर को पहचानने के विशेष साधन हैं, चित्रकार किसी जानदार वस्तु का चित्र बनाने तथा
अंग-प्रत्यंग चित्रित करने में यह अवश्य अनुभव करेगा कि वह अपनी कृति को जीवन
प्रदान नहीं कर सकता, तथास्तु जीवनदाता ईश्वर
के बारे में सोचने को विवश हो जाएगा तथा इस प्रकार उसके ज्ञान में वृद्धि होगी।’’5
ऐसे कथन साबित करते हैं कि अकबर खुलकर चित्रकला के पक्ष में
था। इस वजह से मुगल चित्रकारी को सुनियोजित तरक्की मिली।
अकबर के दौर में चित्रकारी के कई रुप चल रहे थे। अकबर कालीन चित्रकला में
भित्ति चित्रकारी भी होती थी। भित्ति चित्रकारी भारत में पुरापाषाण काल से है
लेकिन उस दौर की चित्रकला गुफा चित्रकारी (Cave Painting) कही गयी। अजंता चित्रकला (fresco technique) पर आधारित भित्ति चित्र थी। सल्तनत काल में भी
इस प्रकार की चित्रकारी चलती रही। मुगल काल में भी यह इसी प्रकार चली। आगरा और
फतेहपुर सीकरी के किलों के भीतर कई ऐसी इमारतें हैं जिनके भीतरी कक्ष की दीवारों
पर चित्र बनाये गए हैं। भित्ति चित्रकारी के विषय मुगल दरबार, युद्ध, शिकार, उत्सव एवं प्रकृति के दृश्य हैं जो ईरानी चित्रकला से
प्रभावित हैं।
अकबरकालीन
चित्रकला का दूसरा रुप ‘पांडुलिपि चित्रण’ है। इसके अंतर्गत अकबर ने ‘हम़ज़ानामा’, ‘खानदान-ए-तैमूरिया’,
‘बाबरनामा’, ‘तारीख-ए-रशीदी’, ‘रज्मनामा’, और ‘अकबरनामा’ को चित्रित करवाया। अकबरकालीन चित्रकला का
तीसरा रुप छवि चित्रकारी या व्यक्ति चित्र है। इस्लाम में तो इसकी पूर्ण मनाही है, इसलिए मुगल काल के पहले तो इस प्रकार के चित्र ही नहीं थे।
इस समस्या से पार पाने के लिए अकबर ने ही सबसे पहले अपना व्यक्ति चित्र बनवाया और
इसके बाद अपने दरबार के अमीरों और मनसबदारों को व्यक्ति चित्र बनवाने का आदेश
दिया। तमाम बने हुए व्यक्ति चित्रों को पोथी में रखकर अकबर ने अपने निजी लाइब्रेरी
में सुरक्षित कर लिया।
अबु़ल फ़ज़ल ने
‘आइन-ए-अकबरी’ में 17 चित्रकारों का नाम से उल्लेख किया है और इनकी
व्यापक चर्चा भी की है। इन 17 कलाकारों में 13 देशी और 4 विदेशी कलाकार थे।
विदेशी कलाकारों में ‘मीर सैयद अली’, ‘अब्दुल समद’, ‘बेहजाद’, और ‘आगारिजा थे। देशी
कलाकारों में ‘दशवंत’, ‘वसावन’, ‘मिस्किन’, ‘केशु’, ‘खेमकरण’, ‘जगन’, ‘हरवंश’, ‘मुकुंद’ और ‘लाल’ थे। इस
प्रकार अकबरकालीन चित्रकला मुगलकालीन चित्रकला को एक स्थायित्व प्रदान करती है।
अकबर द्वारा चित्रकला के आधार को बना देने के पश्चात जहाँगीर ने इस पर सुनियोजित
रुप से चित्रकला का प्रासाद निर्मित करना प्रारम्भ किया। जहाँगीर के काल तक आकर
मुगल कालीन चित्रकला अपने चरम पर पहुँच गयी। पर्सी ब्राउन ने जहाँगीर के विषय में
लिखा है कि ‘‘जहाँगीर तो मुगल चित्रकला की आत्मा है।’’ जहाँगीर के शासन काल में
सारे कलाकार मनसबदार थे। कुछ को तो जहाँगीर ने तो दो हजारी मनसब तक दे दिया।
जहाँगीर के दौर में भी चित्रकारी के वे समस्त रुप चल रहे थे जो अकबर दौर में थे।
किंतु दो नए रुपों का विकास जहाँगीर के काल में हुआ। पहला था - प्रकृति या लघु
चित्रकारी, जिसमें प्रकृति के छोटे-छोटे जीवों, कीट-पतंगों, फूल-पत्तियों और पौधों का
चित्र बनाना होता था। दूसरा रुप प्रतिमापरक चित्रकारी था जिसमें पात्र वास्तविक और
घटना काल्पनिक होती थी। इसमें काल्पनिक घटना के जरिए किसी पात्र विशेष की छवि को
उभारा जाता था। जहाँगीर ने इस प्रकार की चित्रकारी बनवायी जिसमें वह ईरान के शाह
अब्बास से मिलता हुआ प्रदर्शित है। जहाँगीर के काल में सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ
कि भारतीय, ईरानी, तूरानी, प्रभाव के साथ चित्रकला पर यूरोपीय प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ।
जहाँगीर दौर में मुगल चित्रकला पर यूरोपीय प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखायी देता है।
यह प्रभाव चित्र की विषय वस्तु; जिसमें ईसाई धर्म के विषय
ईशु का जन्म, कुमारी मरियम, स्वर्ग का पक्षी, देवदूत, चिनार के पेड़, आदि में दृष्टिगत होते हैं। रंगों पर भी प्रभाव पड़ा था।
पहले मुगल चित्रकला में चटख रंगों का इस्तेमाल नहीं था; अब यूरोपीय संपर्क से चटख रंग चित्रकला में शामिल हो गये।
मुगल चित्रकला
का अंतिम दौर शाहजहाँ के दौर में की गयी चित्रकारी है। चित्रकला का जो रुप जहाँगीर
के काल में था, वैसा ही शाहजहाँ के काल में भी मिलता है।
शाहजहाँ ने इनमें से प्रतिमापरक चित्रकारी को अधिक पसंद किया। इसलिए अधिकतर कलाकार
इस विधा से ही जुड़े रहे। चित्रकारी के इस रुप में शाहजहाँ ने दिलचस्पी ली और
चित्रकारी के अन्य रुपों में पिछड़ते चले गए। इसलिए शाहजहाँ के दौर में मुगल
चित्रकारी का ह्रास हुआ। इसलिए इतिहास में शाहजहाँ कलम या शैली सुनायी ही नहीं
पड़ती है। इस दौर के कलाकारों में ‘मीर हासिम,’
‘फकीरुल्ला’, ‘अगत’, तथा चिंतामणि थे।
औरंगजेब के काल
में चित्रकारी का तेजी से पतन हुआ। औरंगजेब ने खर्च में कटौती के नाम पर अपने दरबार
से 1669 में गायकों, कलाकारों, इतिहासकारों, चित्रकारों, सबको निष्काषित कर दिया। मुगल शैली के चित्रकार इस कारण
भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय दरबारों में चले गए। यहाँ इन चित्रकारों को संरक्षण मिला और
फिर मुगल शैली और क्षेत्रीय शैली के बीच समन्वय हुआ। फिर यहाँ से चित्रकारी की
क्षेत्रीय शैलियाँ विकासमान हुई और चित्रकारी के नवीन रुप उभरते चले गये।
क्षेत्रीय
शैलियों में राजस्थान का स्थान प्रमुख है-जिसमें कोटा कलम, बूंदी कलम, जयपुर कलम, मेवाड़ कलम, और किशनगढ़ कलम सम्मिलित
है। पहाड़ी क्षेत्रीय शैली से संबंधित कलम में जम्मू कलम, कांगड़ा कलम आदि हैं। तथा दक्कन क्षेत्र में उभरी
दक्कनी-बीजापुरी कलम भी इसी परम्परा से जुड़ी हुई है। इन चित्रों के मुख्य रुप से
विषय महाभारत, रामायण,
हरिवंश पुराण, जयदेव की गीत गोविंद,
सूर और मीरा के
काव्य की कथाओं पर आधारित होते हैं। इन कलमों में कृष्ण-राधा कथा अत्यन्त हावी रही
है। प्रेम व श्रंगार की प्रधानता इन चित्रों में चित्रित होती है।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि अकबरी कलम, और जहाँगीरी कलम के बाद
मुगल चित्रकला में कोई कलम नहीं उभरी इसलिए शाहजहाँ और औरंगजेब कलम इतिहास में
सुनायी नहीं देती हैं। औरंगजेब के बाद मुगल चित्रकला का रुप परिवर्तित होकर
क्षेत्रीय कलमों में दिखायी देने लगा। 17वीं-18वीं शताब्दी में उभरे इन कलाओं का प्रदर्शन आज तक जारी है।
मुगलकालीन चित्रकला की यह लंबी अवधि राजस्थानी,
पहाड़ी, दक्कनी, चित्र शैलियों में लक्षित
होती है। मुगलकालीन चित्रकला का अंत नहीं हुआ है अपितु उसने अपना रुप परिवर्तित कर
लिया, जो वर्तमान में भी मुगल काल की चित्रकला का अंश
लिए हमारे समक्ष जीवित है।
संदर्भ ग्रंथ
1.
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त - साहित्यिक निबंध; लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ0-52
2.
विमल चंद्र पांडेय - प्राचीन भारत का राजनीतिक और
सांस्कृतिक इतिहास भाग-2; सेन्ट्रल पब्लिशिंग हाउस
इलाहाबाद, पृ0 -
419
3.
रामधारी सिंह दिनकर - संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तीसरा संस्करण 2010,
पृ0 - 345
4.
वही, पृ0 - 349
5.
लईक अहमद - मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, शारदा पुस्तक भवन इलाहाबाद
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