धर्म और भाषा का संबंध
(19वीं शदी के हिंदी-उर्दू विवाद के संदर्भ में)
डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय
धर्म और भाषा में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है।
भाषा साधन है - साध्य नहीं। भाषा तब से है;
जब से मनुष्य है।
धर्म बहुत बाद में आया। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्की भाषा कह लें और हिन्दू-हिंदी
को। लेकिन तमिलनाडु का हिंदू उसी तरह हिंदी नहीं बोल सकता। जैसा कि उत्तर प्रदेश
का हिन्दू। मुस्लिम भी सामान्य जन-जीवन में उर्दू भाषा का प्रयोग अनिवार्यतः नहीं
करते। बंगाल का मुसलमान बांग्ला, उत्तर प्रदेश का मुस्लिम
हिंदी, महाराष्ट्र का मराठी और दक्षिण भारत का मुसलमान
तमिल-तेलगू-मलयालम आदि बोलता है। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं, सर्व-साधारण की भाषा बोलते हैं, चाहे वह उर्दू हो या हिंदी, बांग्ला हो या
मराठी। “बंगाल का मुसलमान बांग्ला बोलता और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी, आदि। यहां तक उसने अपने-अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली
है। उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक और सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिल्कुल
आवश्यकता नहीं पड़ती।“1 आज मराठी अस्मिता के नाम पर बिहारियों को और
हिन्दी भाषी लोगों को महाराष्ट्र से बाहर किया जा रहा है जबकि दोनों हिन्दू ही
हैं। इस प्रकार धर्म और भाषा का कोई सीधा-सीधा संबंध नहीं दिखता है।
लेकिन यह अजीब विडम्बना रही है कि हिन्दुओं के
लगभग सारे प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में,
बौद्धों के पालि
में, जैन के प्राकृत में और मुसलमानों के अरबी में
हैं। संस्कृत से हिंदी की व्युत्पत्ति मानने के कारण और जनसाधारण के समझ में आने
के कारण हिन्दू इस पर अपना अधिकार मानते हैं। हिंदी, संस्कृत से शब्द
लेती है। मुगल काल में फारसी राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित थी। इसलिए मुसलमान फारसी
पर अपना अधिकार जताते हैं और फारसी से निकली होने के कारण उर्दू पर भी। प्रत्येक
भाषा की एक प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। उर्दू का फारसी और अरबी के साथ स्वाभाविक
संबंध है और हिंदी का संस्कृत के साथ उसी प्रकार का संबंध है। उनकी यह
प्रवृत्ति हम किसी शक्ति से नहीं रोक सकते।
हिंदी-उर्दू विवाद वास्तव में कोई विवाद नहीं
था। इसे विवाद के रूप में उत्पन्न किया गया था जो राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और
सर सैय्यद अहमद खां से प्रारंभ होकर आज तक चल रही है। इसकी चरम परिणति भारत विभाजन
के रूप में हुई। प्रारंभ में मुसलमानों का उर्दू से कोई विशेष लगाव न था। डॉ. वीरभारत
तलवार कहते हैं कि “18वीं सदी से पहले उर्दू एक
गैर इस्लामी जबान समझी जाती थी। ज्ञान और कविता की भाषा फारसी थी और धर्म की भाषा
अरबी। शाह वली उल्लाह ने पहली बार कुरान का अरबी से फारसी में तर्जुमा किया तो
परंपराबादी उलेमाओं ने इसकी बड़ी निंदा की क्योंकि फारसी मजहबी जुबान नहीं थी।
ज्यादा मुसलमानों तक कुरान को पहुंचाने के लिए शाह वली उल्लाह के बेटों- शाह
रफ़ीउद्दीन और अब्दुल कादिर ने उसका उर्दू में तर्जुमा किया। इसकी और भी निंदा की
गयी क्योंकि उर्दू तो खुदा की जुबान बिल्कुल नहीं थी।“
इस हालत वाली उर्दू को मुस्लिम अस्मिता का
प्रतीक बनाया जा रहा था। मुस्लिम अस्मिता के प्रतीक होने में सबसे ज्यादा हाथ इसके
प्रांतीय राजभाषा होने का था। 1837 ई. में फारसी को हटाकर फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू
को राजभाषा बनाया गया। इससे मुसलमानों को सरकारी नौकरियां मिलने में सुविधा होती
थी। उस समय के 14-15 प्रतिशत मुसलमान ही अधिकांश सरकारी नौकरियों
पर कब्जा करते जा रहे थे। इसलिए उर्दू का पक्ष लेना धार्मिक हित की आड़ में आर्थिक
हित था। सैय्यद अहमद सिविल सर्विस की प्रतियोगी परीक्षाओं का भी विरोध कर रहे थे
क्योंकि इससे हिन्दू खासकर बंगाली हिन्दू, शासन में छा जाएंगे। ”नागरी लिपि, हिंदी भाषा और गोरक्षा-इन्हीं तीनों में 19वीं सदी के ‘हिंदी नवजागरण’ के प्राण बसते थे। राजा शिवप्रसाद
पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पश्चिमोत्तर प्रांत की राजभाषा की लिपि बदलने की मांग
की। सरकारी कामकाज और अदालतों की भाषा के लिए प्रचलित उर्दू (फारसी) लिपि को हटाकर
उसकी जगह नागरी लिपि की मांग करते हुए 1868 ई. में उन्होंने सरकार
को एक मेमोरेंडम दिया, जिससे हिंदी नवजागरण की
शुरूआत हुई।“2 1868 के इस मेमोरेण्डम ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच भेद
उत्पन्न कर दिया। तब से उर्दू लिपि के विरुद्ध नागरी का जो आंदोलन शुरू हुआ। वह
लगातार चलता ही रहा।
1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना वेलीजली ने की। इस कॉलेज
में फारसी और हिन्दुस्तानी का हमेशा गठबंधन रहा। इस कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग से
सम्बद्ध गिलक्राइस्ट ने रोमन लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी का पक्ष लिया
और ‘ए ग्रैमर ऑफ दि हिन्दुस्तानी लैंग्वेज’ और ‘ए डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश ऐंड
हिन्दुस्तानी’ नामक पुस्तक लिखी। लेकिन गिलक्राइस्ट को नागरी और फारसी लिपियों को
अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वीकार करना पड़ा। ”जहां तक हिंदी (आधुनिक
अर्थ में) से संबंध है। विलियम प्राइस का विशेष महत्त्व है, क्योंकि उन्हीं के समय में कॉलेज में हिन्दुस्तानी के स्थान
पर हिंदी का अध्ययन हुआ। कॉलेज के पत्रों में ‘हिंदी’ शब्द का आधुनिक अर्थ में
प्रयोग प्रधानता प्राइस के समय से ही मिलता है। हिन्दुस्तान विभाग भी अब केवल
हिन्दी विभाग अथवा हिन्दी-हिन्दुस्तानी विभाग और प्राइस हिंदी प्रोफेसर अथवा
हिन्दी-हिन्दुस्तानी प्रोफेसर कहे जाने लगे थे।“3
हिन्दी के संबंध में एक और महत्त्वपूर्ण विषय
यह है कि वह नागरी अक्षरों में लिखी जानी चाहिए। संस्कृत प्रधान रचना जब फारसी
लिपि में लिखी जाती है तो शब्द कठिनता से बोधगम्य होते थे।
फोर्ट विलियम कॉलेज से सम्बद्ध लल्लूलाल और
सदन मिश्र का हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है। लल्लू लाल ने 'प्रेमसागर' लिखा और इसमें दावा किया कि इसमें यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली और आगरे की भाषा का
प्रयोग किया गया है। सदल मिश्र ने ‘चन्द्रवती’ का अनुवाद ‘नासिकेतोपाख्यान’ नाम से
किया।
हिन्दुस्तानी भाषा के पहले प्रोफेसर जॉन गिलक्राइस्ट ने
हिंदी की पाठ्य पुस्तकें तैयार करवायी। हिंदी या खड़ी बोली नाम की भाषा गिलक्राइस्ट
के द्वारा फोर्ट विलियम कॉलेज में शुरू की गई। 1868 ई. के मेमोरेण्डम के बाद 1882 ई. में आये हण्टर
कमीशन को सैकड़ों मांग पत्र दिये गये कि अदालतों से फारसी लिपि को हटाकर देवनागरी
को प्रतिष्ठित किया जाए। 1893 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा का गठन हुआ। 1897 ई. में इसका एक
प्रतिनिधिमण्डल पं. मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में इलाहाबाद के शिक्षा अधिकारी
से मिला। उनकी मांग 1900 ई. में स्वीकार कर ली
गयी और फारसी के साथ-साथ देवनागरी को भी अदालती मान्यता प्राप्त हुई। अब कोई भी
अपनी अर्जी किसी लिपि में दे सकता था। अब मुसलमानों को भय हो गया कि उन्हें सरकारी
नौकरी नहीं मिलेगी। इस प्रकार जो आंदोलन नागरी लिपि और हिन्दू हित, फारसी लिपि और मुस्लिम-हित को लेकर चल रहा था। वह और तेज हो
गया। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के समय से ही हिन्दुओं को लामबंद करने के लिए धार्मिक
प्रतीक के रूप में गाय का सहारा लिया गया था। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने ‘गो महिमा’
नामक कविता लिखी और दयानंद सरस्वती ने ‘गौ करुणा निधि’। स्वामी दयानंद सरस्वती ने
तो ‘गौरक्षिणी सभा’ भी कायम की। गाय को प्रतीक बना लेने पर शिक्षित और अशिक्षित
हिन्दू जनता एक खेमे में आ गयी। केवल अड़चन कायस्थ और कश्मीरी ब्राह्मण रहे। लेकिन
ये भी धीरे-धीरे नागरी लिपि के पक्ष में आकर खड़े होने लगे।
प्रताप नारायण मिश्र ‘हिम्मत राखो एक दिन नागरी
का प्रचार ही होगा’ नामक लेख में कहते हैं कि - “यदि हमारे भाई अधीर न होंगे तो एक
दिन अवश्य होगा कि भारतवर्ष भर में नागरी देवी अखंड राज्य करेंगी और उर्दू देवी अपने
सगों के घर बैठी कोदों दरेंगी।“ उर्दू की वेश्या से तुलना की गयी और इसे एक
सांप्रदायिक रंग दे दिया गया।
"आपसी विरोध के इस माहौल में पश्चिमोत्तर प्रांत का हिन्दू-मुस्लिम भद्र वर्ग
ब्रिटिश राज के खिलाफ एकजुट होकर एक जातीय समुदाय में बदलने के बजाए एक दूसरे के
खिलाफ दो अलग-अलग जातीय समुदायों में गोलबंद हो रहे थे। एक ने अगर उर्दू भाषा और
लिपि के साथ एक करते हुए अपनी अलग जातीयता बनाने की राह चुनी तो दूसरे ने हिंदी
भाषा और नागरी लिपि को प्रतीक बनाकर अपनी अलग हिन्दू जातीयता खड़ी करने की कोशिश
की। दोनों का विकास एक-दूसरे के विरोध में हुआ।“4
उर्दू-अस्मिता और संस्कृति को बचाने के नाम पर
सर सैय्यद अहमद खां ने ‘उर्दू-डिफेंस एसोसिएशन’ जैसी संस्था स्थापित की। नागरी
लिपि के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन मैकडोनाल्ड नामक बिटिश अधिकारी ने
लाया। इसने 1881 ई. में पटना और भागलपुर में हिंदी को लागू कर
दिया। 1897 ई. में जब वह संयुक्त प्रान्त का गवर्नर बनकर आया तो हिंदी
समर्थकों को बहुत प्रसन्नता हुई। मदन मोहन मालवीय ने साठ हजार हस्ताक्षर कराकर
मैकडोनाल्ड को दिया। मैकडोनाल्ड ने 1900 ई. में फारसी के साथ
नागरी को भी राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी। 1910 ई. में प्रयाग
हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई। यह हिंदी-उर्दू विवाद जोर पकड़ता गया और
भारत का विभाजन हो गया। कहा जाता है कि पाकिस्तान को न तो जिन्ना ने बनाया और न ही नेहरू
ने। पाकिस्तान को बनाया उर्दू ने। भाषा को सांप्रदायिक नजरिए से देखने का यही हश्र
होता है। भारत विभाजन के बाद भी समस्या ज्यों की त्यों मौजूद है। भारत की राजभाषा
हिंदी है और पाकिस्तान की उर्दू लेकिन दोनों देशों में अप्रत्यक्ष रूप से इस पर
अंग्रेजी विद्यमान है।
संदर्भ सूची
1. संपादक सत्य प्रकाश मिश्र, प्रेमचंद के
श्रेष्ठ निबंध, ‘उर्दू हिंदी और हिन्दुस्तानी’, ज्योति प्रकाशन, इलाहाबाद
2. वीरभारत तलवार, राजा शिवप्रसाद सितारे
हिन्द-प्रतिनिधि संकलन की भूमिका से, पृ. 11
3. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय,
आधुनिक हिंदी
साहित्य की भूमिका, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.356
4. डॉ. वीरभारत तलवार,
रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, पहला पेपर बैक संस्करण - 2006, पृ. 260
very nice effort ...keep it up
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