निराला की कहानी कला के संदर्भ में निराला की
कहानियों का मूल्यांकन
डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय
आठ खंड निराला रचनावली के हैं जिसमें छह खंड
गद्य के हैं और दो पद्य के हैं फिर भी निराला बुनियादी तौर पर कवि हैं। एक
कहानीकार की हैसियत से निराला मुख्यधारा के रचनाकार कभी नहीं रहे। गद्य को जीवन
संग्राम की भाषा मानते हुए भी निराला गद्य के जीवन संग्राम में उतने सफल नहीं हुए।
अपने समकालीन कहानीकार प्रेमचंद और प्रसाद की तरह निराला की कहानियाँ पाठकों पर
स्पष्ट प्रभाव छोड़ने में कम सफल रही हैं। प्रेमचंद की कहानियों के बारे में नामवर
सिंह लिखते हैं - ‘‘प्रेमचंद बेशक किस्सागो थे।‐‐‐उनकी ज्यादातर कहानियाँ पढ़ने की अपेक्षा सुनने और सुनाने पर खुलती हैं।’’1 निराला की कहानियाँ इस रुप में भी कमतर रही हैं। निराला की
कहानियाँ पढ़ने के लिए हैं; सुनने और सुनाने के लिए
नहीं हैं। निराला का कथा संगठन न तो प्रेमचंद की तरह प्रवाह उत्पन्य करता है और न
ही कौतूहल। तमाम अच्छे-अच्छे कहानीकारों की कहानियाँ उपलब्ध होने पर निराला की
कहानियाँ पढ़ना एक दुष्कर कार्य लगता है। भाषा के स्तर पर निराला छायावादी संस्कृतनिष्ठ
हिंदी का प्रयोग करते हैं जिसके कारण कथा के प्रवाह और अर्थ-संप्रेषण में बाधा
उत्पन्य होती है।
निराला की कहानियों का प्रारम्भ और मध्य तो ठीक
है लेकिन अंत इन्होंने इतनी तेजी से समेटा कि वह पाठक पर अच्छा प्रभाव नहीं डालता।
निराला की कहानियाँ कथ्य की दृष्टि से मजबूत होते हुए भी शिल्प की दृष्टि से कमजोर
रही हैं। निराला की कहानियाँ संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा और रिपोतार्ज सबको छूते हुए चलती हैं। इसलिए
कभी-कभी इनकी कहानियाँ कहानी के स्थान पर संस्मरण अधिक लगती हैं। निराला जिस तरह
कविता के क्षेत्र में प्रयोगधर्मी रहे हैं। उसी तरह कहानी के क्षेत्र में भी रहे
हैं। वे बनी-बनायी लीक पर चलने में यकीन नहीं करते थे। निराला अपने समय के दो
प्रसिद्ध कहानी के स्कूल प्रेमचंद स्कूल और प्रसाद स्कूल में से किसी में भी शामिल
नहीं हुए और कविता की तरह कहानी में भी अपने लिए एक नई राह बनाई।
निराला ने लगभग दो दर्जन कहानियाँ लिखी। इनकी
कहानियों के तीन संग्रह हैं - ‘लिली’(1930),
‘चतुरी चमार’(1930), और ‘सुकुल की बीबी’(1941)। निराला की कहानियों में
एक हद तक कहानीपन मौजूद है। इसलिए इनकी कहानियों का मूल्यांकन मैं कहानी मानकर ही
करुँगा।
निराला की कहानियों का वितान छायावाद के आर-पार
फैला हुआ है। निराला की कहानियों में छायावादी रुमानी कल्पना, आदर्श और प्रगतिवादी भावबोध दोनों मिलते हैं। निराला की दो
दर्जन के करीब कहानियाँ प्रकाशित हैं। ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ और ‘कुल्ली भाट’ इनकी
लम्बी कहानियाँ हैं जिसे उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। निराला की कहानियों का
शिल्प पक्ष मजबूत न होते हुए भी वे कथ्य की दृष्टि से बेजोड़ प्रभाव उत्पन्य करती
हैं।
‘राम की शक्ति पूजा’ की प्रसिद्ध पंक्ति है - ‘अन्याय जिधर
है उधर शक्ति’। लेकिन निराला की कहानियां इस शक्ति के विरुद्ध खड़ी हैं। निराला की
कहानियाँ उधर खड़ी हैं जिधर न्याय के हकदार हैं। निराला जी ने अपनी कहानियों में
जाति-धर्म तथा वर्ग सभी को कठघरे में खड़ा करके सवाल उठाया है। डॉ. रामविलास शर्मा
लिखते हैं - ‘‘निराला ने स्त्रियों के दुखी जीवन को लेकर अनेक कहानियाँ लिखी। जाति
प्रथा, ऊँच-नीच का भेदभाव, विधवाओं के प्रति कटु व्यवहार, पुरुषों का अहंकार, भारतीय परिवारों में
घुटती नारी इन सबका चित्रण निराला की कहानियों में है।’’2
निराला की कहानियाँ अधिकतर व्यक्तिगत जीवन की
समस्या को उठाते हुए समाज की समस्या को उठाती हैं। निराला की अधिकतर कहानियाँ नारी
जीवन की समस्याओं पर आधारित हैं। इन कहानियों में भुखमरी, विधवा विवाह, दहेज प्रथा, जाति व्यवस्था की बिड़ंबना, आर्थिक और
सामाजिक उत्पीड़न आदि समस्याओं को उठाया गया है। ‘पद्मा और लिली’, ‘ज्योतिर्मयी’, ‘कमला’, ‘श्यामा’, ‘हिरनी’, ‘देवी’, ‘सुकुल की बीबी’, ‘श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी’, ‘जानकी’, ‘न्याय’, ‘दो दाने’, ऐसी ही कहानियाँ हैं। ‘भक्त और भगवान’ और ‘स्वामी सारदानंद
महराज और मैं’, आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानियाँ हैं।
जहाँ पर लेखक को सपने में भगवान के दर्शन होते हैं। निराला की अधिकतर कहानियाँ
रिपोतार्ज, संस्मरण शैली में लिखी गयी हैं। अनेक कहानियों
की घटना लेखक ने स्वयं देखी और अनभूत की है। कविताओं की तरह इनकी कहानियों में भी
‘मैं शैली’ खुलकर आयी है। निराला की मैं शैली सामाजिक यथार्थ को देखने और प्रस्तुत
करने का नया ढंग है। इसे ‘देवी,’ ‘चतुरी चमार’ और ‘कुल्ली
भाट’ में अधिक सामाजिक महत्व का पाएँगे। प्रायः सभी कहानियों में निराला जी
उपस्थित हैं। इसे स्वानुभूति मानते हुए रामगोपाल सिंह चैहान ने लिखा है - ‘‘निराला
की कहानियों में स्वानुभूति का तत्व जितना अधिक है। उतना कम कहानीकारों में मिलता
है।’’3
निराला की ‘देवी’ कहानी एक पगली की कहानी है जो
समाज की विसंगतियों की पोल खोल देती है। पगली की जिजिविषा का एकमात्र कारण उसकी
संतान है। इस कहानी में निराला कथाकार की भूमिका निभाते हैं। पगली इतनी शोषित और
पीड़ित है कि वह न्याय की गुहार भी नहीं लगाती। वह गूँगी होकर ही व्यवस्था का
समाधान ढूँढ लेती है। उसका गूँगी होना गरीब और उपेक्षित लोगों का प्रतीक है जिनको
अपने प्रति हो रहे अन्याय की शिकायत करने के लिए आवाज ही नहीं दी गयी है। निराला
कहते हैं - ‘‘संभव है, पहले सिर्फ गूँगी रही हो, विवाह के बाद निकाल दी गई हो, या खुद तकलीफ
पाने पर निकल गयी हो, और यह बच्चा रास्ते के
किसी ख्वाहिशमंद का सबूत हो।’’4 निराला पगली की क्रियाओं
के पीछे वेदना के सागर को दिखाना चाहते हैं। पगली समाज के साथ-साथ प्रकृति के
प्रकोप को भी सह रही है। पगली का बच्चा भीड़ द्वारा कुचल दिया जाता है। वह बच्चे को
उठाकर प्यार करती है और भीड़ को ज्वालामयी दृष्टि से देखती है। नेता रुपयों की थैली
लेकर जरुरी-जरुरी कामों में खर्च करने के लिए चला जाता है। धर्मभीरु समाज में
रामायण सुनकर श्रोता मंडली पगली पर तरह-तरह का व्यंग्य करती है। निराला ने अंत में
पगली की मृत्यु दिखाकर समाज पर करारा व्यंग्य किया है। जो लोगों की नजर में पगली
है; वह निराला की नजर में देवी है। प्रेमचंद ने कहा
था - ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी और हमें निश्चय ही विलासिता के मीनार से
नीचे उतरकर उस बच्चों वाली काली रुपवती का चित्र खींचना होगा जो बच्चे को खेत की
मेड़ पर सुलाकर पसीना बहा रही है।’’5 निराला की देवी कहानी में प्रेमचंद की इस कसौटी का
सफलतापूर्वक निर्वाह किया गया है। इस कहानी में निराला शोषित, पीड़ित, उपेक्षित, नारी का और उसके बच्चे का मार्मिक चित्र खडा करते हैं। निराला की ‘देवी’ कहानी अभिजात्य सौन्दर्यशास्त्र
से मोहभंग की कहानी है। निराला की यह कहानी उनके छायावादी संस्कारों के प्रगतिवादी
संस्कारों में रुपांतरित होने की कहानी है। निराला इस कहानी में उस समाज के सच को
उजागर करते हैं जो ‘देवी’ जैसे पात्रों को पगली और गूँगी बना देते हैं। समाज के
नेता, धार्मिक लोगों, सेना, समाज के सामान्य लोग,
और होटल में काम
करने काले संगमलाल जैसे पात्र इस गूँगे और बहरे समाज को रचते हैं।
‘राजा साहब को ढेंगा दिखाया’ कहानी में सामंती सोच की
क्रूरता दिखायी गयी है। मंदिर का साधारण सा पुजारी विश्वम्भर वेतन न मिलने के कारण
परेशान है। वह कई बार राजा साहब को इस संबंध में लिखता भी है। लेकिन उसकी अर्जी पर
कोई ध्यान नहीं दिया जाता। वह अपनी तंगहाली से राजा को अवगत कराने का एक नायाब
तरीका ढूँढता है। विश्वम्भर के संकेतों का गलत अर्थ निकाल लिया जाता है। जासूस लोग
जासूसी करके यह पता लगाते हैं कि वह विरोधी पक्ष से मिला हुआ है। इस प्रकार जासूस
लोग भी अपने खाने-पीने का इंतजाम कर लेते हैं। और राजा द्वारा विश्वम्भर को पुजारी
पद से हटा दिया जाता है।
‘चतुरी चमार’ कहानी में निराला ने जाति व्यवस्था और सामंती
व्यवस्था की कमियों को रेखांकित किया है। निराला की मानव मुक्ति की परिधि में दलित
और नारी बहुत प्रमुखता से उभरे हैं। यह कहानी कहानी के स्थान पर रेखाचित्र अधिक
लगती है। निराला की इस कहानी में पात्र निराला के जीवन से ही लिए गए हैं और निराला
की ‘मैं शैली’ के कारण इसमें लेखक की भी जोरदार उपस्थिति है। निराला ‘चतुरी चमार’
में कथा वाचक की भूमिका निभा रहे हैं। रामविलास शर्मा भी लिखते हैं कि ‘‘चतुरी
चमार’ में सन् 1931-32 के बैसवाड़े पर एक
जीता-जागता रिपोर्ताज प्रस्तुत किया गया है।’ चतुरी के साथ मेल-जोल और उसके साथ
खाना खाने के कारण लेखक अपनी बिरादरी से कट जाता है। चतुरी एक जागरुक पात्र है। वह
अपने लड़के को पढ़ाकर अपने पिछड़ेपन को दूर करने का प्रयास करता है। वह दस कोस पैदल, चलकर कष्ट सहकर मुकदमा लड़ता है; लेकिन हार नहीं मानता। चतुरी अपने शोषण को समझ लेता है और
जब मुकदमे के फैसले में उसने सुना कि जमींदार को मुफ्त में जूते देना उसका कत्वर्य
नहीं है। अब्दुल अर्ज में जूतों के दर्ज न होने पर चतुरी को जो खुशी होती है; वह देखने लायक है। वह जान चुका है कि उसकी दासता की बेड़ियाँ
कट चुकी हैं। ‘चतुरी चमार’ में रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोतार्ज और कहानी घुल-मिल से गये हैं। यह कहानी कला की
दृष्टि से अवगुण नहीं है बल्कि यह कहानी कला में एक महत्वपूर्ण मोड़ का परिचायक है।
राजकुमार सैनी के शब्दों में इनके कथ्य की यह सर्वप्रमुख विशिष्टता मानी जानी
चाहिए। वे लिखते हैं - ‘‘निराला की ऐसी कहानियों से ही आधुनिक जनवादी कहानी की
शुरुवात मानी जानी चाहिए। ‘देवी’, ‘राजा साहब को ढ़ेगा
दिखाया’, हिंदी की प्रारम्भिक जनवादी कहानियाँ हैं।’’6
‘देवर का इन्द्रजाल’ कहानी
तंत्र-मंत्र के अंधविश्वास से पर्दा हटाती हैं। कहानी कट्टर मानसिकता पर चोट करने
का प्रयास करती है लेकिन इसमें सफल नहीं होती। ‘परिवर्तन’ कहानी में शत्रुघन सिंह
राजा महेश्वर सिंह से बदला लेता है। ‘श्यामा’ कहानी में बंकिम और श्यामा समाज से
डरते नहीं बल्कि समाज को माकूल जवाब देने के लिए अपने को सामर्थ्यवान बनाते हैं।
इस प्रकार निराला के पात्रों में एक सकारात्मक रवैया व गहरा आशावाद भरा रहता है।
निराला रोमानी भावबोध के कारण जीवन के प्रति गहरा मोह रखते हैं लेकिन कई कहानियों
में ये समाधान प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। ‘पद्मा और लिली’ में पद्मा अंत तक
राजेन्द्र से विवाह नहीं कर पाती। जाति व्यवस्था की दीवार को दोनों पार नहीं कर
पाते हैं। ‘ज्योतिर्मयी’ कहानी में ज्योतिर्मयी बाल विधवा है। वह विजय से प्रेम
करती है और उसी से शादी करना चाहती है। लेकिन संस्कारों को तोड़ने का साहस दोनों
में नहीं है। लेकिन अंत में निराला बड़ी चालाकी से दोनों का विवाह करा देते हैं; पर इस विवाह से ज्योतिर्मयी खुश नहीं होती। ज्योतिर्मयी
अपना दुख इन शब्दों में व्यक्त करती है - ‘‘इसके साथ अपराधी की तरह सिकुड़कर घर के
एक कोने में मुझे संपूर्ण जीवन पार करना होगा।’’7 इस प्रकार निराला
ज्योतिर्मयी कहानी में भी समाधान पक्ष प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। ‘न्याय’ कहानी
पुलिस की न्याय प्रणाली पर अविश्वास की कहानी है। हत्यारे भाग जाते हैं और बचाने
वाले पकड़े जाते हैं। ‘श्यामा’ कहानी में जमींदारी एवं सामंती शोषण की समस्या को
प्रेम के संदर्भ में उठाया गया है। ‘कमला’ कहानी में गाँधीवादी आदर्श को व्यक्त
किया गया है। ‘अर्थ’ कहानी में हिंदू धर्म के आस्थाओं पर चोट की गयी है। ‘गजानंद
शास्त्रिणी’ में धार्मिक लोगों पर व्यंग्य किया गया है। ‘सुकुल की बीबी’ में
अंतर्जातीय विवाह की समस्या चित्रित है। निराला के कथा संसार में शोषण के सभी रुप
सामने आते हैं; किसानों,
कारीगरों का शोषण, उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग का शोषण, स्त्री और दलितों का शोषण, सभी निराला की
कहानियों में है। वे नारी की स्थिति का मूल्यांकन तो करते ही हैं; उसकी स्वाधीनता की वकालत भी करते हैं।
निराला अपनी कहानियों में परिस्थिति और परिवेश
का पूरा चित्र खींचकर रख देते हैं। रामविलास शर्मा लिखते हैं - ‘‘जो गाँव निराला
की कविता, कहानियों और उपन्यासों में बार-बार उभरकर आता
है, उसका भरा-पूरा नक्शा, जिला, डाकखाने सहित यहाँ देखने
को मिलता है। निराला के घर से चतुरी का घर किस ओर है, कहाँ से पनालों का, बरसात का और दिन-रात का
शुद्धा-शुद्ध जल बहता रहता है। यह सब चित्र में सजायी गयी निरर्थक बस्तुएँ नहीं
हैं, उनमें गाँवों के सामाजिक संबंधो का पूरा इतिहास
छिपा हुआ है।’’8
निराला की कहानियों के पात्रों में अंर्तद्वंद
नहीं दिखता है। इनकी ‘देवी’, ‘चतुरी चमार’, सहित अनेक कहानियों में पात्रों के मन में कोई अंर्तद्वंद
नहीं है। तनाव का निर्माण नहीं कर पाने के कारण निराला की कहानियाँ पाठकों को अपनी
ओर खींच पाने में असमर्थ रही हैं। निराला की कहानियों में पात्रों को बहुत अधिक
महत्व मिला है। उन्होंने अपने पात्र समाज के निम्न वर्ग से उठाए हैं। निराला जी के
गद्य साहित्य का अवलोकन करने से पता चलता है कि अपने युग के रचनाकारों में वे
दलितों के सबसे बड़े मसीहा हैं। निराला ने अपना चरित नायक बनाया तो पथवारी दीन को
जो कुल्ली भाट के नाम से जाने जाते हैं। जिन्होंने कहीं से मदद न मिलने पर भी
अछूतों के लिए पाठशाला खोली है। निराला ने कुल्ली के मनुष्यत्व को सदैव नमन किया, किसी के सामने सर न झुकाने वाले निराला ने कुल्ली के
मनुष्यत्व के आगे सर झुका दिया। श्यामा कहानी में सुधुआ के माध्यम से निराला जी ने
दलितों की दशा का जो चित्र उकेरा है। वह कर्म की प्रबल और उद्दाम प्रेरणा देने
वाला है। निराला के बारे में रामगोपाल सिंह चैहान लिखते हैं - ‘‘उन्होंने जिन भाव
बोधों और स्थितियों को स्वानुभूत किया है; उन्हीं का चित्रण किया
है।‐‐‐शायद इसीलिए वे अपने पात्रों को इतनी आत्मीयता के साथ प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं; क्योंकि उन स्थितियों को उन्होंने स्वयं जिया है।’’9
निराला कई वादों से जुडकर भी किसी वाद से बँधे
नहीं। उनकी रचना यात्रा स्वच्छंदतावाद से शुरु होकर छायावाद, प्रगतिवाद, और प्रयोगवाद तक जाती है।
निराला सबसे अधिक प्रयोगधर्मी रहे हैं। वे अद्भुत शब्द शिल्पी थे। निराला के बारे
में अज्ञेय कहते हैं - ‘निराला को जब-जब पढ़ता हूँ मानो नया अविष्कार करता हूँ।
शब्द पर उनका अद्वितीय अधिकार है।’ कविता के क्षेत्र में तो निराला जी निर्विवाद
रुप से महाकवि हैं। लेकिन कहानी के पात्रों में द्वंदात्मक चरित्र विकसित नहीं कर
पाने के कारण ये अपने समकालीन कहानीकारों प्रसाद और प्रेमचंद से बहुत पीछे छूट
जाते हैं। इनकी कहानियाँ सीधी सपाट वर्णन शैली में हैं। निराला की छायावादी
संस्कृतनिष्ठ भाषा कथा के प्रवाह में एक बाधा उत्पन्य करती है। यही कारण है कि
तमाम आयोजित चर्चाओं-परिचर्चाओं के बावजूद निराला की कहानियाँ मुख्य धारा में कभी
शामिल नहीं हो पाई। लेकिन इनकी कहानियों में कहानी कला की दृष्टि से कतिपय दोष
होने के बावजूद वे कुछ ऐसी विशेषताएँ रखती हैं जिनके कारण निराला की कहानियों का
महत्व हमेशा बना रहेगा।
संदर्भ सूची
1.
नामवर सिंह, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन
इलाहाबाद, पृ0 -
96
2.
रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना (द्वितीय खंड) राजकमल प्रकाशन नयी
दिल्ली, प्रथम संस्करण 1972, पृष्ठ - 455
3.
इंद्रनाथ मदान
(संपादक), निराला,
लोकभारती प्रकाशन
इलाहाबाद, पृष्ठ - 186
4.
निराला रचनावली, पृष्ठ - 357
5.
ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ - 47
6.
राजकुमार सैनी, साहित्य स्रष्टा निराला,
पृष्ठ - 92
7. नंदकिशोर नवल
(संपादक), निराला रचनावली (भाग चार), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पृ0 295
8.
निराला की साहित्य
साधना, द्वितीय खंड, पृ0 - 473
9.
निराला, पृ0 - 186
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