फ़िराक़ गोरखपुरी
(1896-1982)
डॉ.अवधेश कुमार पान्डेय
फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर
में हुआ था। इनका वास्तविक नाम रघुपति सहाय था। इनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद जी
थे। वे पेशे से वकील थे लेकिन शायरी भी लिखते थे। इस तरह से उर्दू शायरी का
संस्कार रघुपति सहाय को विरासत में मिला। उर्दू शायरी में यह फ़िराक़ गोरखपुरी के
नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका विवाह किशोरी देवी से हुआ। इनका वैवाहिक जीवन सुखमय न
था। अंत समय तक इनका पत्नी से मतभेद बना रहा।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
की बी.ए. की परीक्षा में इन्होंने पूरे प्रदेश में चौथा स्थान लाया। पढ़-लिखकर यह
आई.सी.एस.अधिकारी बने। असहयोग आंदोलन के समय गांधी जी से प्रभावित होकर इन्होंने
आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ दी और असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। इन्होंने लगभग डेढ़
साल जेल की सजा भी काटी। जेल से निकलने के बाद कांग्रेस पार्टी में इन्हें अवर
सचिव का पद मिला। धीरे-धीरे राजनीति से इनका मोहभंग हो गया और 1929 में इन्होंने
अवर सचिव का पद छोड़ दिया। 1930 में इनकी नियुक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में
अंग्रेजी के प्रोफेसर पद पर हुई। इस विश्वविद्यालय में वह 1930 से लेकर 1959 तक
अंग्रेजी विषय का अध्यापन करते रहे। वे अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष भी बने। हांलाकि
यह अंग्रेजी विषय के अध्यापक थे लेकिन इनको ख्याति उर्दू कविताओं से मिली। इन्हें
अंग्रेजी, उर्दू के साथ-साथ हिंदी और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था। इनकी सहज सी
दिखती शायरी गहरे अर्थों वाली होती है। फ़िराक कहा करते थे कि हिन्दुस्तान में
अंग्रेजी सिर्फ ढाई लोगों को आती है। एक मुझे आती है। एक राधाकृष्णन को आती है और
आधा नेहरू को आती है।
3 मार्च 1982 को दिल्ली में इनकी मृत्यु हो गई। भारत सरकार
ने 1997 में इन पर दो रुपए का डाक टिकट जारी किया था।
जिन्हें शक हो वो करे और ख़ुदाओं की तलाश।
हम तो इंसान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं।।
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किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुश्न और इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
हज़ार बार ज़माना इधर से ग़ुजरा है
नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी।
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ख़ुदा को पा गया वाइज़, मगर है-
जरूरत आदमी को आदमी की।।
रचनाएं
गुल-ए-नगमा, नग्म-ए-साज़, मशाल, हजार दास्तान फ़िराक़ की
प्रमुख रचनाएं हैं। साधु की कुटिया उनका एकमात्र उपन्यास है जिसे इन्होंने हिंदी
और उर्दू में लिखा है। इन्होंने लगभग 4000 से अधिक शेरों की रचना की जिसमें उर्दू
कविता की समृद्ध परंपरा को संजोया गया है। बहुत ही साधारण विषयों को उठाकर बहुत ही
असाधारण शेर फ़िराक़ ने कहे हैं। कई भाषाओं और जन-जीवन की गहरी समझ के कारण
फ़िराक़ की रचनाओं में काफी गहराई पाई जाती है।
पुरस्कार/सम्मान
- ‘गुल-ए-नगमा’ रचना के लिए 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार। इसी रचना के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला।
- 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया।
- 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य चुना गया।
हुस्न भी था उदास
हुस्न भी था उदास, उदास ,शाम भी थी धुआं-धुआं,
याद सी आके रह गयी दिल को कई कहानियां।
छेड़ के दास्तान-ए-गम अहले वतन के दरमियां,
हम अभी बीच में थे और बदल गई ज़बां।
सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ मिलेंगे नक्श-ए-पा,
पूछना यह फिरा हूं मैं तेरे लिए कहां- कहां।
रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनो की बज्म,
याद नहीं ज़मीन को, भूल गया है आसमां।
जिसको भी देखिए वहीँ बज़्म में है गज़ल सरा,
छिड़ गयी दास्तान-ए-दिल बहदीस-ए-दीगरा।
बीत गए है लाख जुग सूये वतन चले हुए,
पहुंची है आदमी की ज़ात चार कदम कशां-कशां।
जैसे खिला हुआ गुलाब चांद के पास लहलहाए,
रात वह दस्त-ए-नाज़ में जाम-ए-निशात-ए-अरगवां।
मुझको फिराक़ याद है पैकर-ए-रंग-ओ-बूए दोस्त,
पांव से ता जबी-ए-नाज़, मेहर फशां-ओ-मह चुका।
याद सी आके रह गयी दिल को कई कहानियां।
छेड़ के दास्तान-ए-गम अहले वतन के दरमियां,
हम अभी बीच में थे और बदल गई ज़बां।
सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ मिलेंगे नक्श-ए-पा,
पूछना यह फिरा हूं मैं तेरे लिए कहां- कहां।
रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनो की बज्म,
याद नहीं ज़मीन को, भूल गया है आसमां।
जिसको भी देखिए वहीँ बज़्म में है गज़ल सरा,
छिड़ गयी दास्तान-ए-दिल बहदीस-ए-दीगरा।
बीत गए है लाख जुग सूये वतन चले हुए,
पहुंची है आदमी की ज़ात चार कदम कशां-कशां।
जैसे खिला हुआ गुलाब चांद के पास लहलहाए,
रात वह दस्त-ए-नाज़ में जाम-ए-निशात-ए-अरगवां।
मुझको फिराक़ याद है पैकर-ए-रंग-ओ-बूए दोस्त,
पांव से ता जबी-ए-नाज़, मेहर फशां-ओ-मह चुका।
अर्थ
भारत विभाजन एक ऐसी घटना थी जिसने न केवल एक देश को दो
मुल्कों में बांट दिया बल्कि उनके दिलों को भी बांट दिया। आजादी की लड़ाई में सभी
साथ थे लेकिन आजादी मिलते ही दोनों अलग-अलग हो गए। दोनों की भाषा, संस्कृति और
तहज़ीब भी अलग-अलग हो गई। फ़िराक दोनों मुल्कों को मानवीय आधार पर एक मानते हैं।
उन्हें साथ लड़ी गई लड़ाईयां याद आती है और उनकी साझी संस्कृति याद आती है।
हुस्न भी था उदास, उदास ,शाम भी थी धुआं-धुआं,
याद सी आके रह गयी दिल को कई कहानियां।
याद सी आके रह गयी दिल को कई कहानियां।
व्याख्या - शायर भारत विभाजन की बातों को याद कर रहा है। उसको अच्छी और सुंदर चीजें भी उदास नजर आ रही है। शाम का समय बहुत रोमांटिक होता है; वह भी उसको बहुत धुंधली नजर आ रही हैं। शायर विभाजन के उन भीषण साम्प्रदायिक दंगों को याद कर रहा है जिसमें लोग एक दूसरे का खून बहा रहे थे। भारत जब स्वतंत्र हुआ और मिलजुल कर रहने का समय आया तो उसे खूनी दंगों की आग में जलना पड़ा। इस तरह की कई कहानियां फ़िराक़ को याद आती हैं।
छेड़ के दास्तान-ए-गम अहले वतन के दरमियां,
हम अभी बीच में थे और बदल गई ज़बां।
शब्दार्थ - दास्तान-ए-गम - दुख भरी कहानी
अहले वतन - देशवासी
दरमियां - बीच में
अर्थ - फ़िराक कहते हैं कि विभाजन
के साथ ही दोनों देशों के बीच दुख की ऐसी कहानी शुरू हुई कि जिसका कोई अंत ही नहीं
है। हमें जब मिलजुल कर रहने का समय आया और जब हम खुशहाली के रास्ते के बीच में ही
थे कि हमारी भाषाएं बदल गई। पाकिस्तान की उर्दू राष्ट्र भाषा हो गई और भारत की
हिंदी। हमारे बातचीत का टोन बदल गया। अब हमारे बीच वह मिठास नहीं रही।
सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ मिलेंगे नक्श-ए-पा,
पूछना यह फिरा हूं मैं तेरे लिए कहां- कहां।
शब्दार्थ - सरहद-ए-गैब - अज्ञात सीमा
नक्श-ए-पा - पांव के निशान
अर्थ - शायर कहता है कि ऐ मेरे
हिन्दुस्तान तेरी आजादी के लिए कहां-कहां हम नहीं भटके। आपको हर जगह मेरे कदमों के
निशान मिल जाएंगे। उस वतन की तलाश मैं कहां-कहां नहीं फिरा, मुझे खुद नहीं मालूम।
यानि देश के लिए हमने अथक परिश्रम किया है।
रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनो की बज्म,
याद नहीं ज़मीन को, भूल गया है आसमां।
शब्दार्थ - तमददुनो - सभ्यताओं
बज्म - सभा, महफिल
अर्थ - यहां कितनी सभ्यताएं आई और
चली गई। कई सभ्यताओं की यहां तूती बोलती थी लेकिन आज उन सभ्यताओं को भूला दिया
गया। आज उनकी चर्चा नहीं होती। सब उनको भूल चुके हैं। यहां तक की हमारी जमीन और
आसमान को भी उनके बारे में पता नहीं है। यानि उन सभ्यताओं के पद-चिन्ह अब पूरी तरह
से मिट चुके हैं।
जिसको भी देखिए वहीं बज़्म में है गज़ल सरा,
छिड़ गयी दास्तान-ए-दिल बहदीस-ए-दीगरा।
छिड़ गयी दास्तान-ए-दिल बहदीस-ए-दीगरा।
शब्दार्थ - सरा - गायक
बहदीस-ए-दीगरा
- दूसरों की
बातों के साथ
अर्थ - फ़िराक़ कहते हैं कि आज जिसे
देखो वही महफ़िल सजाकर अपनी बातें करने लगता है। लोग अपना सुर छेड़े रहते हैं।
अपनी ग़ज़ल सुनाए जा रहे हैं लेकिन अब उस राग में वह बात नहीं है, जो पहले हुआ
करती थी। अब दूसरों की बातों के साथ अपने दिल की कहानियां कही जा रही हैं।
बीत गए है लाख जुग सूये वतन चले हुए,
पहुंची है आदमी की ज़ात चार कदम कशां-कशां।
पहुंची है आदमी की ज़ात चार कदम कशां-कशां।
शब्दार्थ - सूये - तरफ, ओर
कशां-कशां - धीरे-धीरे
अर्थ - वतन को वतन बनाने की दिशा में
प्रयास करते लाखों वर्ष बीत गए लेकिन आदमी इस दिशा में धीरे-धीरे चार कदम ही बढ़
पाया है। कहने का अर्थ यह है कि जिस प्यार और समर्पण की कीमत पर वतन बनता है; उसे
हम समझ ही नहीं पाए हैं। देश तो हमने आजाद करा लिया लेकिन उस जश्न का हम आनंद ही
नहीं ले पाए। अभी भी मानव को बहुत कुछ सीखना बाकी है।
जैसे खिला हुआ गुलाब चांद के पास लहलहाए,
रात वह दस्त-ए-नाज़ में जाम-ए-निशात-ए-अरगवां।
रात वह दस्त-ए-नाज़ में जाम-ए-निशात-ए-अरगवां।
शब्दार्थ - दस्त-ए-नाज़ - नाजुक हाथ
जाम-ए-निशात-ए-अरगवां - उनके हाथों में शराब का जाम बिल्कुल ऐसे ही है जैसे चांद के पास खिला हुआ गुलाब
जाम-ए-निशात-ए-अरगवां - उनके हाथों में शराब का जाम बिल्कुल ऐसे ही है जैसे चांद के पास खिला हुआ गुलाब
अर्थ - उनके नाजुक हाथों में शराब का
जाम ऐसा लगता है मानो रात में चांद के पास खिला हुआ गुलाब लहरा रहा हो। चांद की
प्रकृति ठंडी होती है। यह देखकर शायर के दिल को भी ठंठक पहुंचती है।
मुझको फिराक़ याद है पैकर-ए-रंग-ओ-बूए दोस्त,
पांव से ता जबी-ए-नाज़, मेहर फशां-ओ-मह चुका।
पांव से ता जबी-ए-नाज़, मेहर फशां-ओ-मह चुका।
शब्दार्थ - पैकर-ए-रंग-ओ-बूए
दोस्त - महबूब की
छवि-रंग और सुगंध
जबी-ए-नाज- पांव से माथे तक
फशां-ओ-मह चुका - सूरज और चांद की तरह रोशनी फूट रही है |
फशां-ओ-मह चुका - सूरज और चांद की तरह रोशनी फूट रही है |
अर्थ - मैं अपने महबूब रूपी
वतन को सर से लेकर पांव तक जानता हूं। मुझे उसका रूप-रंग, चेहरा, खुशबू सब याद है।
उसके पांव से लेकर माथे तक हर जगह से रोशनी फूट रही है। मैं उसकी रोशनी से चौंधिया
गया हूं। कहने का अर्थ है कि मेरा वतन बहुत खूबसूरत है। वह हर दृष्टि से संपन्न
है।
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