संत कबीर (1398-1518 ई.)
डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय
निर्गुण संतों में सबसे अधिक ख्याति संत कबीर की रही है। वह
विद्वानों, विद्यार्थियों और आम जनता सबको अपनी तरफ आकर्षित कर लेते है। शायद ही
कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसको कबीरदास के दो-चार दोहे कंठस्थ न हों। कबीर शब्द आज एक जीवित
मिथक, जीवित मुहावरा है।
कबीर ने जिस तरह से अनेक प्रतिरोधों का मुकाबला
करते हुए अंत समय तक बनारस में आसन जमाया, वह इतिहास में एक मिसाल
के रूप में दर्ज है। कबीर एक अदम्य जिजिविषा के प्रतीक हैं। उन्होंने पंडितों और
मुल्लाओं के बीच रहकर उनके विरोध की प्रचंड आग झेली थी। उन्होंने उस धार्मिक सत्ता
पर सवाल करने का साहस किया जिससे तत्कालीन समाज संचालित हो रहा था। यह काम
उन्होंने तत्कालीन धर्म और संस्कृति की राजधानी वाराणसी में रहकर किया; यह उनके असीम साहस का ही परिचायक है।
कबीर राम के पीछे नहीं भागते बल्कि उनके राम तो ‘पाछे लागे हरि फिरें, कहत कबीर कबीर’, और ‘माला जपूं न कर जपूं, मुख से कहूं न राम; वाले राम हैं। कबीर जनता
को संबोधित करते हुए अपनी बात कहते हैं। भगवान को संबोधित करते हुये अपनी बात कम
कहते हैं। आज के छह सौ साल पहले स्वर्ग लोक में भगवान और मृत्यु लोक में राजा ही
महत्वपूर्ण हुआ करता था। कबीर ने उस समय जनता की बात की। आम आदमी की बात की और
उनके रोजमर्रा के सवालों से टकराये। कबीर एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभरे जिसे न
स्वर्ग का लालच था और न ही नरक का भय -
‘‘अनजाने को स्वर्ग नर्क है, हरि जाने को
नाहीं।।
जेहि डर से भव लोक डरतु
हैं, सो डर हमरे नाहीं।।“
आजकल यह सवाल अक्सर उठाया जाता है कि कबीरदास
हाशिये की आवाज थे। एक खास तरह की राजनीति और साहित्य के उभार के बाद से कबीर को
हाशिये की आवाज कहने का प्रचलन सा हो गया
है। कबीर के अनुयायियों में चारो वर्णों के लोग थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्गों के लोग कबीर के शिष्य बने। कबीर के
शिष्यों में हिंदू और मुसलमान दोनों थे। राजा वीरसिंह बघेल से लेकर बिजली खान तक
कबीर के सक्रिय और विशेष अनुयायी थे। कबीर को संत रविदास, पीपा, दरिया साहब, निर्वाण साहब इत्यादि ने अपना गुरु माना। कबीर से प्रभावित
होने वालों की एक लंबी सूची है। मलूकदास, चरणदास, गरीबदास, अक्षर अनन्य, संत बुल्लेशाह, मीता साहेब, तुलसी साहेब, घीसा साहेब और आधुनिक समय में रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा
गांधी कबीर से प्रभावित रहे हैं। मध्यकाल में जिनके नाम के साथ दास या साहब लगा
हुआ मिलता है; लगभग वह सब कबीरदास जी से किसी न किसी रूप में
प्रभावित थे और उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते थे।
कबीर अपने समय के सबसे सशक्त हस्ताक्षर थे और
सभी वर्गों के लोगों पर उनका समान असर था। हाशिये की आवाज कहना कबीर के महत्व को
सीमित कर देना है और उन्हें उस जाति और वर्ग के कठघरे में बंद कर देना है जिसके
कबीर कट्टर आलोचक थे। कबीर अपने आपको जुलाहा जरूर कहते हैं लेकिन उन्होंने कभी
जुलाहा समाज के नेता के रूप में अपने आपको पेश नहीं किया।
मगहर में अगल-बगल ही एक तरफ मज़ार है और एक तरफ
कबीर की समाधि है। जो लोग मगहर जाते हैं; वह दोनों जगह जाते हैं।
इसका अर्थ है कि छह सौ वर्षों के बाद भी कबीर कहीं न कहीं जनमानस के बीच सांस ले
रहे हैं। कबीर के व्यापक प्रभाव को विदेशी विद्वानों ने भी रेखांकित किया है।
विलियम क्रुक लिखते हैं कि ‘‘तुलसीदास की रामायण को छोड़कर शायद किसी भी अन्य रचना को उत्तर भारत के हिंदुओं के बीच वैसी
लोकप्रियता हासिल हो, जैसी कबीर के बीजक को।
उसकी बानियां तो हिंदू या मुसलमान सभी के मुंह से कभी भी सुनी जा सकती हैं।“
कबीर का जीवन तो प्रसिद्ध रहा ही है, उनकी मृत्यु भी
प्रसिद्ध रही है। ऐसे विरले महापुरुष हुए हैं जिनके मरने के बाद हिन्दू और मुसलमान
दोनों इस बात पर झगड़ पड़े हों कि
कबीर मेरे हैं। मलूकदास जी इस घटना के बारे में लिखते हैं -
‘‘कासी तजि मगहर आये, दोउ दीनन के पीर।
कोई गाड़े कोई अग्नि जरावै, नेक न धरते धीर।।
चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।
दास मलूक सलूक कहत है, खोजो खसम कबीर।।’’
कबीरदास जी अदभुत साहसी एवं हिम्मती व्यक्ति थे
इसीलिए कई प्रभावशाली व्यक्तियों के लाख प्रतिरोध के बाद भी हमेशा विजयी रहे। कबीर
अपने साहस, जुझारु व्यक्तित्व, असमझौतावादी दृष्टिकोण और ज्ञान के कारण भारतीय जनमानस में
पिछले छह सौ सालों से अधिक समय से बने हुए हैं।
कबीर जयंती के इस अवसर पर उनकी स्मृति को नमन!
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