छायावाद
क्या है? छायावाद की परिभाषा देते हुए उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि पर प्रकाश
डालें?
अथवा
छायावाद
की परिभाषा देते हुए, छायावादी काव्य की स्वाधीनता चेतना पर प्रकाश डालें?
डॉ. अवधेश
कुमार पाण्डेय
1916-18
से 1936-38 तक कि वे कविताएं
जो प्रसाद, निराला, पंत और
महादेवी वर्मा द्वारा लिखी गई, छायावादी कविताएं कही गई। ये चारों छायावाद
के आधार स्तंभ माने जाते हैं। छायावाद का प्रयोग प्रारंभ में व्यंग्य रूप में उन
कविताओं के लिए किया गया जो ‘अस्पष्ट’ थी जिनकी छाया (अर्थ) कहीं और पड़ती थी। बाद में
यह नाम उन सारी कविताओं के लिए परंपरा बन गया जिनमें मानव और प्रकृति के सूक्ष्म
सौंदर्य में ‘आध्यात्मिक छाया’ रहस्यवाद का भान होता था और वेदना की रहस्यमयी
अनुभूति की लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शैली में अभिव्यंजना होती थी।
छायावाद 1920 के आस-पास चर्चा में आ गया था। मुकुटधर पाण्डेय ने हिंदी में छायावाद नाम से एक निबंध 1920 में लिखा। इस पहले ही निबंध में उन्होंने छायावाद की मूल चेतना को समझा। वे छायावाद को मिस्टिसिज्म (रहस्यवाद) शब्द का हिंदी प्रतिरूप मानते हैं। वे कहते हैं कि, “मेरी दृष्टि में छायावाद एक ऐसी मायामय वस्तु है जिसका ठीक-ठीक अर्थ करना असंभव है। छायावाद में शब्द अपना वास्तविक अर्थ खोकर सांकेतिक चिन्ह मात्र रह जाता है।“ वे छायावादी कविता की कल्पनाशीलता के बारे में कहते हैं, “यहां कविता देवी की आंखें सदैव ऊपर की ओर उठी रहती हैं। मर्त्यलोक से उसका कोई खास संबंध नहीं होता।“ मुकुटधर पाण्डेय ने अपने विवेचन में छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों - सांकेतिकता, रहस्यात्मकता, लाक्षणिकता और कल्पनाशीलता को पहचाना।
छायावाद की प्रवृत्तियों को अन्य विद्वानों ने
पहचाना और इसकी परिभाषा भी दी। रामचन्द्र
शुक्ल कहते हैं - “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों
में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में- जहां उसका संबंध कथावस्तु से होता
है, अर्थात जहां कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलंबन मानकर अत्यंत चित्रमयी
भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है।...छायावाद का दूसरा प्रयोग
काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।“
महावीरप्रसाद
द्विवेदी ने छायावाद की
परिभाषा इस तरह दी है, “यदि किसी कविता के भाव की छाया
कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे ही छायावादी कविता कहते हैं।“
डॉ.
नगेन्द्र के अनुसार - “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।“
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी - “मानव तथा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त
सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भाव छायावाद की सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।“
डॉ. नामवर
सिंह - “छायावाद उस सांस्कृतिक जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर रूढ़ियों
के विरूद्ध था और दूसरी ओर राष्ट्रीय पराधीनता के विरूद्ध। वास्तव में छायावाद
जनमुक्ति का काव्यांदोलन है। यह बंदिशों के विरूद्ध एक विद्रोह है। यह विद्रोह कहीं
काव्यरूढ़ियों के प्रति है, कहीं सामाजिक रूढ़ियों के प्रति तो कहीं यूरोपीय दासता
के विरूद्ध है तो कहीं राजनीतिक-सामाजिक दासता के। मुक्ति ही छायावादी कविता का
केन्द्रीय भाव है।“
सामाजिक-सांस्कृतिक
दृष्टि
छायावादी कविता अन्तर्जगत की ओर उन्मुख हो गई
तथा भाषा में सूक्ष्मता, वक्रता और लाक्षणिकता का समावेश हो गया। प्रणय की
अनुभूतियां गहन होती गई और उसमें प्रेम और मादकता का समावेश हो गया। छायावाद के
पहले ही नवजागरण का संदेश फैल रहा था इसलिए अतीत गौरव की अभिव्यक्ति, स्वाधीनता की
चेतना, राष्ट्र प्रेम, त्याग और बलिदान, अस्मिता की खोज छायावादी कविता में दिखाई
पड़ती है। गांधीवादी जीवन मूल्यों का छायावाद पर पर्याप्त प्रभाव भी इस बात का
प्रमाण है कि उस काल का राजनीतिक परिदृश्य गांधीजी की सक्रिय भूमिका से परिचालित
और प्रभावित था। द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप जहां उसमें स्थूलता,
अतिशय नैतिकता एवं इतिवृत्तात्मकता का विरोध हुआ, वहीं तत्कालीन पराधीनता ने
राष्ट्रीयता, आत्मगौरव, मानववाद जैसे मूल्यों का समावेश करा दिया।
कामायनी की श्रद्धा तकली पर सूत कातती है, हिंसा
का विरोध करती है और मनु को प्रवृत्ति मार्ग का संदेश देती है। गांधीजी के चरखे की
अनुगुंज हमें प्रसाद की श्रद्धा के तकली चलाने में दिखाई पड़ती है - “चल री तकली धीरे-धीरे।“ श्रद्धा मनु की हिंसा वृत्ति का विरोध करती है और उन्हें अहिंसा का पाठ पढ़ाती
है।
पंत ने 1936 में ‘बापू के प्रति’ कविता रची -
“सुख भोग खोजने आते सब, आए तुम करने सत्य खोज।
जग की मिट्टी के पुतले जन, तुम आत्मा के मन के मनोज।“
स्वाधीनता की चेतना
छायावादी कविता सिर्फ क्षितिज के पार की
ताक-झांक नहीं है। यह अपने समय की समस्याओं से उलझती भी है। काकोरी षडयंत्र केस,
साण्डर्स हत्याकांड, असेम्बली बम कांड, भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी जैसे
महत्वपूर्ण घटनाचक्र इसी काल के हैं। इन परिस्थितियों का प्रभाव छायावादी काव्य पर
अनिवार्य रूप से पड़ा और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों ने ‘पुष्प की अभिलाषा’
जैसी रचना की। प्रसाद के काव्य संग्रह ‘लहर’ में ‘शेरसिंह का आत्मसमर्पण’ एवं
‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ नामक दो ऐसी कविताएं संकलित हैं जो स्वातंत्र्य चेतना से
युक्त हैं। ‘जागो फिर एक बार’ में निराला ने भारतीयों को उनके अतीत गौरव का स्मरण
कराया। निराला ने बार-बार यह याद दिलाया कि तुम पराधीन नहीं मुक्त हो - “मुक्त हो तुम बाधा विहीन बंध, छंद ज्यों” छत्रपति शिवाजी को पत्र में निराला ने हिन्दू पुनुरुत्थानवादी आधार लेकर
जातीय एकता कायम करने की बात की।
महादेवी वर्मा ने ‘जाग तुझको दूर जाना’ जैसे
गीतों के द्वारा राष्ट्रीय मुक्ति की प्रेरणा दी। पंत में यह राष्ट्रीय चेतना
प्रसाद, निराला की तरह नहीं है लेकिन उन्होंने भी परिवर्तन शीर्षक कविता में अपने
स्वर्णिम अतीत और भग्न वर्तमान को दुखी मन से याद किया है। बालकृष्ण शर्मा
‘नवीन’ कहते हैं -
“कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मिल जाए।“
इस तरह हम देखते हैं कि छायावादी कविता में
पर्याप्त स्वाधीनता की चेतना विद्यमान है।
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