शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

आदिकाल का 'जैन साहित्य'

 

जैन साहित्य

डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय

सांसारिक विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त करने वाले को जैन कहा जाता है। जैन शब्द ‘जिन’ से बना है जिसका अर्थ है विजय पाने वाला। यह सांसारिक आकर्षणों पर होने वाली विजय है। जैन मत के प्रभाव में अधिकांश काव्य गुजरात, राजस्थान और दक्षिण भारत में रचा गया। जैन कवियों की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्य शैलियों में मिलती हैं। जैन कवियों में प्रमुख हैं - स्वयंभू, पुष्यदंत, हरिभद्र सूरि, विनयचन्द्र सूरि, धनपाल, जोइन्दु, देवसेन, शालिभद्र सूरि आदि।



     आदिकाल के जैन कवियों ने भी अपनी रचनाएं अपभ्रंस भाषा में की। जैन कवियों की प्रमुख रचनाएं हैं- स्वयंभू कृत ‘पउमचरिउ’ यह अपभ्रंस भाषा में राम कथा है। इस रचना के कारण ही स्वयंभू को अपभ्रंस भाषा का वाल्मीकि कहा जाता है। अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं - अब्दुल रहमान का ‘संदेश रासक’ रामसिंह द्वारा रचित पाहुड़ दोहा, जिनचन्द्रसूरि रचित ‘उपदेशरसायन रास’ हेमचन्द्र द्वारा रचित ‘शब्दानुशासन’। इनमें हेमचन्द्र अपभ्रंस के अच्छे ज्ञाता एवं उच्चकोटि के कवि थे। इन्होंने अपने समय से पहले के कवियों के सुन्दर उदाहरण अपने व्याकरण ग्रंथ में उद्धृत किए हैं। जैसे -

पिउ संगम कउ निद्दड़ी पिउ हो परोक्खहों केंव।

मइं वित्रिबि बिन्नासिया निद्द न ऐंव न तेंव।।

(पिया के मिलने पर नींद कहां और प्रियतम के वियोग में नींद कहां। हे सखी! मैं तो दोनों तरह से विनष्ट हुई- न इस प्रकार नींद न उस प्रकार)



इस सम्प्रदाय में दया, करूणा, त्याग और अहिंसा को बहुत अधिक महत्व दिया गया। यह त्याग केवल इन्द्रिय निग्रह में ही नहीं अपितु सहिष्णुता में है। इसलिए इन्होंने व्रत, उपवास पर अधिक बल दिया। डॉ. रामचन्द्र शुक्ल इसको साहित्य की कोटि में नहीं रखते क्योंकि सिद्धों-नाथों की तरह जैनों की रचनाएं भी धार्मिक मतों का प्रचार करती हैं।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें