शुक्रवार, 30 मई 2025

तांबे के कीड़े tambe ke kide

 

तांबे के कीड़े

असंगत नाटकों का उद्भव, विकास और पृष्ठभूमि

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

असंगत (एब्सर्ड) नाट्य विधा का जन्म पश्चिम में हुआ। पश्चिम में 1945 से 1965 तक का समय असंगत नाटकों का माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व मानव निरर्थकता का एहसास कर रहा था। असंगत नाटककार मानते हैं कि जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य का जीवन निरर्थक है। जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। मानव एकरस और नीरस जिंदगी जी रहा है। व्यक्ति निराशा, कुंठा, भ्रम और अनैतिकता से भर गया है। हर व्यक्ति समाज में रहते हुए भी अकेला है। वह अंदर से कुछ चाहता है और बाहर कुछ दूसरा करता है। इसलिए विचारों की टकराहट विसंगतियों को जन्म दे रही है। पारिवारिक संबंध, रिश्ते-नाते सब केवल शब्द मात्र हैं। रिश्तों में भावनात्मक और संवेदनात्मक सहयोग की भारी कमी है। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945 ई.) के बाद सब कुछ व्यर्थ और अर्थहीन लग रहा था। भय, चिंता, निराशा के इस दौर में असंगत नाटकों की उत्पत्ति हुई।

‘एब्सर्ड’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग मर्टिन एसलिन ने किया। पश्चिम में इब्सन और स्ट्रिंडवर्ग ने परंपरागत नाटकों से अलग नाटक लिखना शुरू किया था। ‘एब्सर्ड थियेटर’ विकसित करने वालों में इब्सन, बेकेट, ब्रेख्त, सार्त्र, हैरोल्ड पीटर इत्यादि का उल्लेखनीय योगदान है। सैमुअल बेकेट के असंगत नाटक ‘वेटिंग फ़ॉर गोडो’ (1952 ई.) को नोबेल पुरस्कार भी मिल गया। इससे असंगत नाटकों की उत्कृष्टता पर मुहर लग गयी।

असंगत नाटकों की विशेषताएं

असंगत नाटक परंपरागत नाटकों से काफी हद तक अलग हैं। यह अपने परिवेश और युग से उत्पन्न हुआ है। इसमें विकृत मनोवृत्तियों, विसंगतियों, क्रूरता, वीभत्स कल्पना इत्यादि का चित्रण होता है। असंगत नाटकों में असामान्य चरित्रों जैसे- बीमार, आवारा, पागल, चोर- उच्क्के, विक्षिप्त इत्यादि को महत्व दिया जाता है। इनमें परंपरागत नायक-नायिका नहीं होते और न ही चरित्रों का सुनियोजित विकास होता है। चरित्र समाज से कटे और टूटे हुए लोग होते हैं। इनके कार्य तर्कहीन और बेतुके होते हैं। जीवन मूल्यों या रिश्तों-नातों में इनको विश्वास नहीं रहता है। इनकी भाषा भी परंपरागत भाषा से अलग होती है। असंगत नाटक के चरित्रों का मानना है कि परंपरागत भाषा सच्चाई पर पर्दा डाल देती है इसलिए ये नई भाषा और नए तेवर के साथ उपस्थित होते हैं। भाषा से ज्यादा असंगत नाटकों में मूक अभिनय को महत्व दिया जाता है। असंगत नाटकों में कोई क्रमबद्ध कथा नहीं होती। इसमें समस्याओं को सिर्फ दिखाया जाता है, समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिया जाता है।

असंगत नाटककारों का मानना है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यर्थ जी रहा है। उसका कोई लक्ष्य नहीं है। वह व्यर्थ परिश्रम कर रहा है। मशीनी विकास का वह गुलाम बन चुका है। हर व्यक्ति अकेला है और एकरस और नीरस जिंदगी जी रहा है। नैतिकता के सारे बंधन टूट चुके हैं। पारिवारिक संबंध और नाते-रिश्तेदारी सब औपचारिकता मात्र रह गए हैं। विनाश के आतंक से हर कोई भयाक्रांत है। ऐसी परिस्थिति में कोई महान चरित्र जन्म नहीं ले सकता। असंगत नाटक अपनी शैली में अतियथार्थवादी होते हैं।

यह नाटक मंचीय संभावनाओं से परिपूर्ण है। इसके सभी पात्र थके हारे और मानवीय संबंधों से अलग-थलग हैं। न चाहते हुए सभी नाश और निर्माण के लिए विवश हैं। सभी एक अनचाही जिंदगी जी रहे हैं। इस नाटक में स्त्री अपने पति से कहती है कि ‘मैंने तुमसे शादी क्यों की।‘ नाटककार दर्शकों को उनकी वास्तविक स्थिति से परिचय कराकर उनके भ्रम का एहसास करवाना चाहता है। नाटक बिना कुछ कहे या बिना उपदेश दिए दर्शकों को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना चाहता है। मानवीय मूल्यों से उसे जोड़ना चाहता है और इसमें वह पूरी तरह से सफल हुआ है।

‘तांबे के कीड़े’ की कथावस्तु और प्रतीक योजना

हिंदी में असंगत नाटकों के प्रथम प्रयोक्ता भुवनेश्वर प्रसाद (1910-1957 ई.) हैं और ‘तांबे के कीड़े’ (1946 ई.) हिंदी का पहला असंगत नाटक है। भुवनेश्वर अंग्रेजी साहित्य के गंभीर अध्येता थे इसलिए साहित्य और विश्व में हो रहे परिवर्तनों से वाकिफ थे। तांबे के कीड़े एक बहुचर्चित एकांकी है। इसे भुवनेश्वर के एकांकी नाटकों में सर्वश्रेष्ठ स्थान हासिल है। हर असंगत नाटक की तरह ‘तांबे के कीड़े’ की कथा भी क्रमबद्ध नहीं है। नाटक में एक महिला अनाउंसर झुनझुना बजाते हुए मंच पर आती है और नाटक को प्रारंभ करती है। वह कहती है, “हम अकेले और बेसरोसामान इस संसार में आए। हम सवालात उठाते हैं और यही सवाल ही मनुष्य के जीवन को सौन्दर्य से काट देते हैं और हम मृत्यु को निरुत्तर कर देते हैं। हमारा संगमरमर सा जीवन घायल और खून से लथपथ हो जाता है।“ भौतिक लिप्सा ने हमको अत्यधिक स्वार्थी और अजनबी बना दिया है। हम अकेले लक्ष्यहीन अपने अस्तित्व की खोज में लगे हैं। आगे महिला अनाउंसर कहती है, “मृत्यु हमारे सामने लोरियां गाती है। हम अपनी जानें खतरे में डाल सकते हैं, पेंशनें नहीं। युद्ध में सैनिक जान पर खेल सकता है, मगर अपनी आत्मा की आवाज सुनकर पेंशन बंद होने का खतरा मोल नहीं ले सकता।“

इस एकांकी में एक पागल आया है। उसने 200 किताबें लिखी है। वह अपने जान बाबा मशालची  को स्वेटर लिए ढूंढ़ रही है। वह उन्हें ठंड से बचाना चाहती है। उसकी कोई नहीं सुनता। वह बुद्धिजीवी वर्ग की प्रतीक है जिसकी अब कोई नहीं सुनता। इस एकांकी में एक स्त्री है। वह बारिश में भीगकर खड़े-खड़े अकड़ गयी है। वह सोच रही है कि बारिश से बीज सड़ जाएंगे। इतने में आवाज आती है कि अब कांच के बीज बन गए हैं जो सड़ते नहीं हैं। यह बीज उगने से इनकार नहीं करते। एक बार बोओ, हजार बार काटो। यह विज्ञान की प्रगति और मानवता के ह्रास का प्रतीक है।

स्क्रीन के पीछे से आवाज आती है कि बादलों ने सूरज की हत्या कर दी। यह मानव शक्ति द्वारा प्राकृतिक शक्ति को मारने का प्रतीक है। अब मानव आईने से प्रकाश ले रहे हैं। इसमें एक रिक्शावाला है। उसके रिक्शे में आईने लगे हैं। वह कहता है कि “धरती पर अब आइनों का शासन होगा।“ इसी बीच एक अफसर रिक्शे वाले से टकरा जाता है जिससे उसका एक आईना टूट जाता है। स्क्रीन के पीछे से एक ऊबी हुई औरत की आवाज उभरती है। वह सेक्स चाहती है लेकिन बच्चा नहीं चाहती। सृजन का काम वह पुरुष पर छोड़ती है। मशरूफ पति कहता है कि मैं यह सब नहीं करूंगा। वह शराब पीकर काल्पनिक निर्माता से अपना दिल बहलाता है। उसका निर्माता ऊनी बादलों में रहता है। उसकी पत्नी उसको लड़खड़ाते हुए देखकर रिक्शे वाले से कहती है- “साहब की तबीयत ठीक नहीं है, जल्दी से चलो।‘ परेशान औरत रिक्शे वाले को पीछे से ठोकर मारती है। रिक्शा वाला गिर जाता है और उसका एक पैर बेकार हो जाता है। वह अफसर आता है और इस अत्याचार का विरोध करता है। वह स्त्री पहले तो उस अफसर को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती है। जब वह पक्ष में नहीं होता तो रिक्शे वाले को गिराने का सारा दोष उस अफसर पर डाल देती है। इसमें उसका पति भी उसका साथ देता है। रिक्शा वाला भी अब यह समझने लगता है कि उस अफसर ने ही उसे धक्का देकर गिराया है। रिक्शावाला उस अफसर को मार डालता है। वह स्त्री अपने फरेब में सफल हो जाती है।

पागल आया भी मशरूफ पति का पक्ष लेती है। वह परेशान पति को देखकर उसे ही बाबा जान मशालची घोषित कर देती है। वह कहती है कि हमें रिक्शे वाले के स्टेचू बनाना चाहिए और उसके जाली ऑटोग्राफ बेचने के लिए कंपनियां खड़ी करनी चाहिए। यहां पागल आया अवसरवादी बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतीक बन जाती है। एक तरफ वह दो सौ किताबें लिखकर आदर्श प्रस्तुत करती है; दूसरी तरफ भ्रष्ट व्यवस्था से सांठगांठ करने में देर नहीं करती।

पागल आया और मशरूफ पति आपस में बात करते हैं कि अब सारी चीजें कांच की बनेंगी। उसको सिर्फ तांबे के कीड़े खा सकते हैं। सबसे ताजी ईजाद है तांबे के कीड़े। इस तरह मनुष्य अपनी ही बनाई चीजों को नष्ट करने के लिए दूसरी चीजें ईजाद करता है। निर्माण और नाश का यह क्रम लगातार चलता रहता है। एकांकी के अंत में रिक्शावाला पैरों में घुघरूं बांधकर जोकरों की तरह भद्दी लय में गाना गाता है। बारिश हो रही है लेकिन रिक्शे वाले की पत्नी दरवाजा नहीं खोलती। अनाउंसर यह सब देखकर हंसते-हंसते लोटपोट हो जाती है। एकांकी यहीं खत्म हो जाती है।

नाटक पूरी तरह से प्रतीकात्मक है। प्रकृति प्रदत्त बीजों का सड़ना और कांच और शीशे के बीजों का बनना प्रकृति पर विज्ञान की विजय का प्रतीक है। हम प्रकृति के आंचल को छोड़कर विज्ञान पर निर्भर होते जा रहे हैं। सूरज हमारी जीवनी शक्ति और ज्ञान का प्रतीक है जिसकी हत्या की घोषणा इस एकांकी नाटक में होती है। 'अब धरती पर आईनों का शासन होगा' यानि अब विज्ञान ही हमें नियंत्रित करेगा। रिक्शावाला मजदूर वर्ग का प्रतीक है। उसने अफसर को मार डाला। यह व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष को बताता है। नाटक के सभी पात्र भय और भ्रम में हैं और निरर्थक जीवन से त्रस्त हैं। मनुष्य की इसी नियति को नाटक में विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से दिखाया गया है। मुंशी प्रेमचंद ने भुवनेश्वर प्रसाद के बारे में सत्य ही कहा है –“भुवनेश्वर में प्रतिभा है, गहराई है, दर्द है, पते की बात कहने की शक्ति है। मर्म को हिला देने वाली वाकचातुरी है।“

 

 

 

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