मंगलवार, 3 जून 2025

Nagarjun, नागार्जुन, Pragativaad, प्रगतिवाद

                           प्रगतिवाद: विशेषताएं, प्रवृत्तियां

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

प्रगतिवाद की संज्ञा उस काव्य को दी गई जो छायावाद के उपरांत सन 1936 ई. के आस-पास शोषण के विरूद्ध नई चेतना लेकर रचा गया। प्रगतिवादी साहित्यकारों ने साहित्य को मार्क्सवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार का साधन बना लिया क्योंकि वे साहित्य को मार्क्सवादी चश्मे से देखते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर काव्य रचना करने वाले कवियों में प्रमुख हैं- केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शिवमंगल सिंह 'सुमन', त्रिलोचन शास्त्री, नरेन्द्र शर्मा आदि। इनके अतिरिक्त पंत की कुछ कृतियां (ग्राम्या, युगांत, युगवाणी) निराला, दिनकर की कविताओं में प्रगतिवादी स्वर उपलब्ध होता है। हिंदी में यशपाल, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन प्रगतिवादी कथाकार हैं जबकि रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त एवं अमृतराय के नाम प्रगतिवादी आलोचकों के रूप में लिए जाते हैं।

प्रगतिवादी कवि समाज के नवनिर्माण की प्रेरणा देता है- ‘हो समाज यह चिथड़े-चिथड़े शोषण पर जिसकी नींव पड़ी।‘ दिनकर ने ‘श्वानों को मिलता दूध भात भूखे बालक अकुलाते हैं।‘ वाली व्यवस्था पर क्षोभ व्यक्त किया है। निराला ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में ‘अबे! सुन बे गुलाब’ कहकर पूंजीपतियों को ललकारते हैं। प्रगतिवादी कवि मजदूर के साथ सहानुभूति रखते हुए कहता है- 'ओ मजदूर, ओ मजदूर, तू ही सब चीजों का कर्ता, तू ही सब चीजों से दूर।' मुक्तिबोध तो मानते थे कि प्रत्येक हृदय में इतनी पीड़ा है कि उस पर महाकाव्य लिखा जा सकता है- 'मुझे भ्रम होता है कि, प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है। हर एक छाती में आत्मा अधीरा है। प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है। मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य की पीड़ा है।' प्रगतिवादी काव्य ऐसी तान सुनाना चाहता है जिससे उथल-पुथल मच जाए।

प्रगतिवादी कवि रूस की क्रान्ति से प्रभावित होकर हर जगह क्रान्ति देख लेता है। केदारनाथ अग्रवाल गेहूं को क्रान्ति का प्रतीक मानकर शोषण के विरूद्ध नई चेतना विकसित करके आंदोलन का संकेत किया है- ‘रोड़ों से वह बेहारे लोहा लेता है। नंगे-भूखे, काले लोगों का नेता है। ऊंचा गेहूं डटा खड़ा है। ताकत की मुठ्ठी बांधे है, नुकीले भाले ताने है।‘

प्रगतिवादी कविता का संबंध जनसाधारण के जीवन से होता है इसलिए इन कवियों को जनवादी भी कहते हैं। प्रेमी-प्रेमिका भी प्रगतिवाद में समाज सुधार की बात करते हैं- ‘उसका हाथ, अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा। दुनिया को, हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।' अज्ञेय ने 1943 में प्रयोगवाद नामक एक नया साहित्यिक आंदोलन शुरू किया, इससे प्रगतिवाद का स्वर धीरे-धीरे मंद पड़ गया। प्रगतिवाद का समय 1936 से 1942 ई. तक माना जाता है।

नागार्जन: काव्य संवेदना, यथार्थ चेतना और लोकदृष्टि

“जनता मुझसे पूछ रही है, मैं क्या बतलाऊं। मैं जनकवि हूं, मैं साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं।“ नागार्जुन की यह साफगोई उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से झलकती है। वे सामान्य जनता का पक्ष लेते हुए भी शासन-प्रशासन से लड़ने को तैयार हैं- "मैं जनकवि हूं, क्यों चाटूं मैं थूक तुम्हारी। जनता पर क्यों चलने दूं, बंदूक तुम्हारी।" नागार्जुन की कविता में यथार्थ चित्रण पूरी नग्नता से हुआ है - "सपने में भी सच न बोलना, वरना पकड़े जाओगे? भैया लखनऊ दिल्ली पहुंचो मेवा मिश्री पाओगे। माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर किसानों का। हम मरभुख्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।" राजनेताओं के मुखौटे को हटाते हुए वे कहते हैं - "अंदर-अंदर विकट कसाई बाहर खद्दरधारी हैं।" नागार्जुन की संवेदना का पता हमें 'उन्हें प्रणाम' और 'अकाल और उसके बाद' शीर्षक कविताओं से लगता है। जो बात औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है; वही नागार्जुन के कवित्व की रचनाभूमि है- “ताजा गोश्त का टुकड़ा सुतरी में टंगा है और नेवला बार-बार छलांग लगा रहा है और गुस्से से चीख रहा है किर्र...किर्र...किर्र।“

              


नागार्जुन की बीहड़ प्रतिभा ही एक मादा सूअर पर "पैने दांतों वाली' कविता रच सकती है। इसी तरह कटहल कविता का कोई विषय नहीं है लेकिन नागार्जुन कटहल को देखकर पिहक उठते हैं-- अह् क्या खूब पका है कटहल।' यदि कविता में 'दंतुरित मुस्कान' और 'सिंदूर तिलकित भाल' और एक बस ड्राइवर के सामने उसकी बच्ची द्वारा टांगी गई 'गुलाबी चूड़ियां' देखनी हो तो हमें नागार्जुन की कविता की दुनिया में जाना होगा। वे जिस ललक से 'निशा शेष ओस की बूंदियों से लदी अगहनी धान की दुद्धी मंजरियां' देखते हैं और हुलसकर कहते हैं कि 'दो सिंके हुए भुट्टे सामने आए, तबीयत खिल गई।' एक ओर यात्री के रूप में उन्होंने 'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते हुए देखा है।' तो दूसरी ओर किसान की तरह “धिन-धिन धा धमक-धमक मेघ बजे।“ का गीत भी मस्त होकर गाया है। जब वे देखते हैं कि कांग्रेसी नेता “दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के। खिले हैं जो दाने अनार के।“ तो नागार्जुन “आए दिन बहार के" गाते हुए नाचने लगते हैं। ब्रिटेन की रानी के आने पर स्वागत की धूमधाम देखकर नागार्जुन ने गाया - "आओ रानी हम ढोएंगे पालकी। यही हुई है राय जवाहरलाल की।"

कबीर के बाद हिंदी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंगकार अभी तक कोई नहीं हुआ। तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपाल से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी तक है। नागार्जुन तत्कालीन व्यवस्था से बहुत व्यथित थे इसलिए उनकी कविता में काफी आक्रोश मिलता है। वे स्वयं कहते हैं-

“कैसे लिखूं शान्ति की कविता,

अमन चैन को कैसे कड़ियों में बांधूं।

मैं दरिद्र हूं, पुश्त-पुश्त की यह दरिद्रता,

कटहल के छिलके जैसी खुरदरी जीभ से

मेरा लहू चाटती आयी है।“

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