साहित्य के आस्वादन में साहित्येतिहास की
भूमिका
डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय
आज के
वैज्ञानिक और तकनीकि युग में यह प्रश्न अक्सर उठता है कि क्या साहित्य की कोई
प्रासांगिकता है? या वह एक निरर्थक वस्तु है। साहित्य की
प्रासांगिकता का सबसे बड़ा प्रतिमान है - मनुष्य को संवेदनशील बनाने की उसकी
क्षमता। ऐसा नहीं है कि संवेदनशील होने के लिए साहित्य अनिवार्य उपकरण है; किन्तु यह जरुर है कि साहित्य का आस्वादन करके कोई भी
व्यक्ति अपनी संवेदना में उत्कर्ष महसूस करता है। संवेदनशीलता का अर्थ है-‘दूसरे
के दुख में दुखी होने की क्षमता’। हिन्दी की कई रचनाएँ इस दृष्टि से महान हैं,
विशेषकर प्रेमचन्द व नागार्जुन जैसे रचनाकारों का साहित्य। साहित्य मनुष्य को एक
जैविक प्राणी की हैसियत से उठाकर सामाजिक, सांस्कृतिक प्राणी बनाने
में योगदान देता है। भक्तिकाल व आधुनिक काल में कई महान कवियों ने सूक्ष्म
अंतदृष्टि से समाज की मूल समस्याओं को उभारा है। साहित्य समाज को भविष्य की
प्रेरणा भी देता है। बदलते हुए समाज के साथ समाज को किन आदर्शों की जरुरत है; साहित्य उसे पहचान कर नए आदर्शों की प्रतिष्ठा करता है।
साहित्य का एक उद्देश्य मनोरंजन भी है। मनुष्य मात्र की इच्छा होती है कि सिर्फ
शरीर के स्तर पर ही नहीं उसे मन के स्तर पर भी प्रसन्यता मिले। आज के समय में जब
इंटरनेट पर ब्लागिंग जैसी सुविधाएँ विकसित हो गयी हैं। साहित्य दुनिया भर को जोड़ने
का तीव्र माध्यम बन गया है।
अब सवाल उठता
है कि साहित्य और इतिहास का क्या संबंध है?
‘‘इतिहास और
साहित्य के बीच एक गहरा संबंध रहा है। कभी साहित्य ने इतिहास की धारा को बदलने की
कोशिश की तो कभी इतिहास ने साहित्य की। अगर हम स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास पर
ध्यान दें तो कई ऐसी कोशिशें और घटनाएँ दिखायी पड़ती हैं जिनका इतिहास और साहित्य
के साथ गहरा संबंध है।’’1
इतिहास अतीत का
हूबहू प्रतिबिम्ब नहीं बल्कि सीमित स्रोतों के आधार पर तथा आज की सोच के माध्यम से
अतीत को समझने का प्रयास है। इसी कारण इतिहास की पूर्ण व्याख्या में सहमति कम ही
देखने को मिलती है। यही कारण है कि आज इतिहास की आवश्यकता क्या है? इस पर भी सवाल उठाए जा रहें हैं। ‘‘इतिहास विरोधी आधुनिक
साहित्य चिंतन पर विचार करने के बाद यह भी विचारणीय है कि क्या हम इतिहास और चिन्ता
से मुक्त हो सकते हैं। ज्यां ब्रांट कोर्टियस ने कहा है कि इतिहास से मुक्त होने
का अर्थ है-मानवता से पलायन करना और चूँकि हम मानवता से पलायन नहीं कर सकते इसलिए
इतिहास से भी अलग नहीं हो सकते।’’2
जब इतिहासकार रचना को भूलकर केवल परंपरा, परिवेश और प्रभाव का विवेचन करता है तब इतिहास अधूरा और
एकांगी हो जाता है। रचना के कलात्मक मूल्य का विश्लेषण आलोचना का विषय बन गया और
इतिहास परंपरा तथा परिवेश के विश्लेषण तक सीमित हो गया। डॉ. मैनेजर पान्डेय कहते
हैं कि साहित्य के इतिहास का विधेयवादी रुप इतना स्थायी बन गया कि प्रायः
विधेयवादी इतिहास ही साहित्य के इतिहास का पर्याय हो गया। इतिहास विरोधी आलोचक
विधेयवादी इतिहास की कमजोरियों को साहित्येतिहास की अवधारणा की स्थायी कमजोरी समझकर
उसकी आलोचना करते हैं। विधेयवादी इतिहास में इतिहास का काम रचना के मूल्यांकन के
लिए वस्तुपरक भूमिका तैयार करना रह गया। गांधीवादी, मार्क्सवादी, मुस्लिम और हिन्दू पृथकतावादी विचारधाराओं ने अलग-अलग
इतिहासकारों के लेखन को अलग-अलग रुपों में प्रभावित किया। आधुनिक काल में
इतिहासकारों के लिए स्रोतों का अभाव नहीं है वरन् तथ्यों का चयन और मूल्यांकन अधिक
विवादास्पद हो गए हैं। लेकिन इन सबके बावजूद साहित्य का इतिहास दस्तावेजों और
तथ्यों की खोज, उनके वर्गीकरण और काल निर्धारण तक सीमित नहीं
होता। डॉ. राम स्वरुप चतुर्वेदी का मानना है साहित्य का इतिहास ऐसा होना चाहिए
जिसमें कवि कीर्तन की जगह कविता कीर्तन को तरजीह दी गयी हो तथा उसे साहित्य के
इतिहास की तरह भी पढा जाए और साहित्य की तरह भी। ‘‘यदि किसी युग के बहुसंख्यक समाज
में परम्परा का जीवित बोध हो तो सम्भवतः साहित्य के इतिहास की कोई आवश्यकता ही न
रहे। ‐‐‐ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृत काव्यशास्त्र मे जो अलग से इतिहास लिखने की प्रणाली नहीं थी उसका एक कारण संभवतः यह भी था।‐‐‐कालक्रम से यह परम्परा टूट गयी, इसलिए अतीत को वर्तमान से जोड़ने के लिए इतिहास ग्रंथों की
आवश्यकता पड़ी। सामान्य जनता कबीर, सूर, तुलसी को तो जानती है किसी भक्तिकाल या भक्ति आंदोलन को
नहीं; और साहित्य का सामान्य पाठक भी गोदान, कामायनी, मैला आंचल या कोई कृति
विशेष ही पढ़ता है। यथार्थवाद, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि नहीं।’’3 इसलिए इन सबका ज्ञान कराने के लिए साहित्य का इतिहास जरुरी
है।
चंदबरदाई, कबीर, सूर, जायसी, तुलसी, बिहारी, भारतेंदु के कृतित्व को न
सिर्फ उनके युगीन संदर्भो में रखकर समझा जा सकता है बल्कि आधुनिक संदर्भो में भी
समझा जा सकता है। साहित्य के इतिहास में अतीत और वर्तमान के बीच एक रिश्ता होता
है। अतः इन सबको साहित्य के इतिहास के संदर्भ में हम जब तक नहीं समझेंगे तब तक हम
इनको ठीक से समझ नहीं सकते। जिस प्रकार गोमुख से बंगाल तक गंगा एक ही है लेकिन उसे
सुविधा की दृष्टि से हम हरिद्वार की गंगा, बनारस की गंगा, प्रयाग गंगा इत्यादि नाम से पुकारते हैं; वैसे ही साहित्य की धारा भी शुरु से लेकर आज तक एक ही रही
है लेकिन जहाँ-जहाँ उसमें किसी खास प्रवृत्ति का संचार हुआ या वह नया मोड लेती है।
वहाँ पहचान बनाने के लिए आदिकाल-भक्तिकाल जैसे नामकरण कर दिए गए। यदि साहित्य का
इतिहास न होता तो लोग किसी कवि विशेष को ही पढ़ते और उस युग की सारी प्रवृत्तियों
के विषय में नहीं जान पाते। यदि कोई निराला को पढ़ता तो वह केवल निराला के ही विषय
में जान पाता। छायावाद क्या है? छायावाद आया कहाँ से है? छायावाद का वैचारिक और दार्शनिक आधार क्या है? इत्यादि जानकारियों से वंचित रह जाता। इसलिए साहित्य में एकीकरण और समरसता के लिए
साहित्य का इतिहास जरुरी है। हम जानते हैं कि बिना दूरी लिए कोई चीज पूरी तरह
दिखायी नहीं देती और वर्तमान से दूरी लेने का एकमात्र तरीका है। उसे अतीत से जोड़कर
उसी क्रम में देखना। यदि मुझे आधुनिक काल पढ़ना है तो आधुनिक काल में भाषा और
साहित्य का जो स्वरुप स्थिर हुआ है वह एक निश्चित विकास एवं परिमार्जन की
प्रक्रिया से गुजरते हुए आधुनिक काल तक पहुँचा है। इसमें एक विकास-क्रम दिखना
चाहिए; इसलिए भी साहित्य का इतिहास जरुरी है।
साहित्य के
इतिहास के बिना हम किसी कवि के बारे में ही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। किसी खास
काल या प्रवृत्ति के बारे में नहीं। साहित्य के इतिहास में आदिकाल क्या था? इसकी उदय की पृष्ठभूमि क्या थी? एक कवि दूसरे कवि से किस प्रकार प्रभावित हुआ? इत्यादि की भी विवेचना होती है। आदिकाल में साहित्य का जो
स्वरुप था। ठीक वही स्वरुप आज नहीं है। इस विकासक्रम को हम साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में ही समझ
सकते हैं। साहित्य के इतिहास से हमें एक ही जगह सारी चीजें मिल जाती हैं, जिससे
साहित्य के विकासक्रम का पता चलता है। साहित्य के इतिहास में हम किसी विचारधारा का
संयोजन भी पाते हैं। अलग-अलग विचारधाराओं के इतिहास लेखन के बीच से हमें एक
संतुलित दृष्टिकोण बनाने में मदद मिलती है। इन अलग-अलग विचारधाराओं के बीच किसी
कवि और लेखक का व्यक्तित्व और निखर कर सामने आता है। अच्छा इतिहास हमेशा
अंतःसम्बंधों और समग्रता पर केन्द्रित होता है। प्रत्येक युग का उत्तम और श्रेष्ठ
साहित्य अपने विकासशील विचारों, सर्जनात्मक संस्कारों और
भावात्मक संवेदनाओं को लिखित स्वरुप प्रदान करता है। आज जबकि संपूर्ण दुनिया
श्रव्य और दृश्य माध्यमों से एक श्रखला में जुड़ चुकी है, फिर भी हम एक-दूसरे देश के संबंध में अधिकाधिक जानकारी वहाँ
के साहित्य का अध्ययन करके ही प्राप्त करते हैं। साहित्य का इतिहास केवल महान
प्रतिभाओं और रचनाओं का स्तुति गायन नहीं है और न ही यह तिथियों और तथ्यों का
संग्रह है। साहित्य का इतिहास नियमबद्ध होकर साहित्य का क्रमानुसार विश्लेषण और
विवेचन है। अतः साहित्य के आस्वादन में साहित्य के इतिहास की बहुत महत्वपूर्ण
भूमिका है।
संदर्भ सूची
1.
देवेन्द्र चौबे और रश्मि चैधरी का तद्भव पत्रिका में
प्रकाशित ‘इतिहास और कविता’ नामक लेख से उदधृत।
2.
डॉ. मैनेजर पान्डेय-साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन-दरियागंज,
सं0 1981,पृ0 38
3.
नामवर सिंह ‘इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन,प्रथम सं0 1957,पृ0 161
very nice
जवाब देंहटाएं