गुरुवार, 26 सितंबर 2019

Sahitya ka arth aur uski bhumika


आधुनिक समय में साहित्य का अर्थ और उसकी भूमिका
                                    डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय

     साहित्य के संबध में यह एक सर्वमान्य और सर्वसम्मत मत है कि साहित्य विचारों व भावों के सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम है। परन्तु परिभाषा के स्तर पर सर्वसम्मति का यह दर्पण कुछ धुंधला सा जाता है। यही कारण है कि विभिन्य विद्वानों के विचारों में सामांजस्य बिठाते हुए साहित्य को रेखांकित करना एक दुष्कर कार्य है। कई विचारकों का मानना है कि आज के वैज्ञानिक व तकनीकी युग में साहित्य महत्वहीन वस्तु बन कर रह गया है। टॉमस लव पीकॉक जैसे साहित्य विरोधियों ने तो यहां तक घोषित कर दिया कि ‘इस वैज्ञानिक व तकनीकि युग में साहित्य रचना एक आदिम कार्य है और साहित्यकार अर्धबर्बर के समान है।’ प्लेटो अपने आदर्श राज्य में कवियों को जगह नहीं देता है।
     साहित्य ने अपने विकास क्रम में विविध आयामों को छुआ है और इसमें अभी बहुत संभावना भी विद्यमान है इसलिए ‘साहित्य क्या है? को परिभाषित करते समय बहुत सचेत रहने की जरुरत है। यदि साहित्य शब्दों की क्रीडा है तो हमें सबसे बड़ा साहित्यकार केशव और बिहारी को ही मानना पड़ेगा। यदि साहित्य सिर्फ कल्पना है तो फिर कल्पना और तर्क का क्या संबंध है? यदि कल्पना से लिखा गया साहित्य अनुपयोगी है तो फिर कल्पना और यथार्थ का क्या संबंध है? क्या कल्पना के माध्यम से लिखा गया साहित्य विचार का हिस्सा नहीं बनते? और यदि उसमें विचार है तो वह साहित्य क्यों नहीं है? हमें यह भी तय करना पड़ेगा कि क्या कल्पना निराधार होती है? यदि मनुष्य ने हवाई जहाज या उड़नपरी की कल्पना की होगी तो क्या उसके सामने उड़ती चिड़िया का बिम्ब नहीं रहा होगा?
     साहित्य को परिभाषित करते समय हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि साहित्य का धर्म से, विज्ञान से व ज्ञान की अन्य शाखाओं से क्या संबंध है? धर्म और साहित्य के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा होनी चाहिए। तुलसी के मानस और वेदव्यास रचित महाभारत से लिए गए गीता को धर्म और साहित्य दोनों रुपों में मान्यता प्राप्त है। क्या हमारी संस्कृति का समर्थन करने वाली रचनाएं ही साहित्य हैं अथवा उनका विखन्ड़न करने वाली रचनायें भी साहित्य हैं। क्या केवल मुद्रित रचनायें ही साहित्य हैं? और यदि मुद्रित रचनायें ही साहित्य हैं तो जनमानस में बिखरा हुआ नृत्य और गायन को समाहित किया हुआ लोकसाहित्य क्या है? जाहिर है कि साहित्य के संबंध में अभी ढेर सारे विवादों का शमन होना शेष है। धूमिल तो यहां तक कह देते है कि ‘इस ससुरी कविता को जंगल से जनता तक ढोने से क्या होगा?’
     साहित्य को परिभाषित करते हुए आज हम चाहे जो मानदंड बना लें; वह कल जरुर अप्रासांगिक हो जाऐगी और होना चाहिए भी। एक समय था जब साहित्य की रामचन्द्र शुक्ल की परिभाषा से सर्वसम्मति दिखती थी लेकिन आज इसका खन्डन करने वाले ही बहुतायत में हैं। जिस प्रकार से हम यह परिभाषित नहीं कर सकते कि मनुष्य क्या है? उसी प्रकार हम पूर्णतः सही तरीके से परिभाषित नहीं कर सकते कि ‘साहित्य क्या है?’ हम मोटे तौर पर यह बता सकते हैं कि मनुष्य को कैसा होना चाहिए? इसी प्रकार साहित्य को कैसा होना चाहिए? यही बताया जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि - ‘‘विचार’ और ‘कल्पना’ भाषा द्वारा प्रकट किये जाते हैं। यही साहित्य है। पदार्थ साहित्य नहीं; पदार्थों का शब्द रुपी संकेत भी साहित्य नहीं और केवल शब्द भी साहित्य नहीं-‘विचार’ का नाम साहित्य है।’’ (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘साहित्य’ नामक निबंध से) रामचन्द्र शुक्ल की इस परिभाषा में विचारों पर अधिक बल दिया गया है। आचार्य शुक्ल साहित्य में आये विचारों को लोकमंगल की कसौटी पर कसने के हिमायती थे।
      हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य का अर्थ अधिक व्यापक रुप में लेते हैं। वे कहते हैं कि साहित्य के अन्दर मुद्रित और बिना मुद्रित दोनों प्रकार के साहित्य आते हैं। ‘लोक साहित्य’ वह साहित्य है जो बहुत कम लिपिबद्ध हुआ है। द्विवेदी जी की दृष्टि में साहित्य हमें प्राणिमात्र के सुख-दुख को समझने के लिए सहानुभूतिमय दृष्टि देता है। साहित्य हमें मानवतापूर्ण ऐसी धरती पर ले जाता है जहां हम सारे विश्व के साथ आत्मीयता का अनुभव करते हैं। साहित्य हमारी जानी हुई बातों को ही नये ढंग से पेश करके हमारी संवेदना को जगाता है।
      साहित्य क्या है’? अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग दृष्टि से विचार किया है। बालकृष्ण भट्ट ‘साहित्य को जनसमूह के हृदय के विकास मानते हैं।‘ मैथ्यू अर्नाल्ड़ साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। मुक्तिबोध साहित्य को जीवन की पुनर्रचना मानते हैं। साहित्य के बारे में मशहूर है - ^Literature is a kind of truth.’  प्रेमचन्द साहित्य को स्वाभावतः प्रगतिशील मानते हुए भी यह स्वीकार करते हैं कि सभी साहित्यकार प्रगतिशीलता का एक ही अर्थ नहीं लेते हैं। द्विवेदी जी कहते हैं - ‘जिन अवस्थाओं को एक समुदाय उन्नति समझ सकता है, दूसरा समुदाय असंदिग्ध अवनति मान सकता है। साहित्यकार समाज की यथास्थित को विचलित कर नया गढ़ना चाहता है। इसलिए वह स्वाभावतः प्रगतिशील होता है। जब भी कोई व्यक्ति एक रचना से दूसरी रचना को बड़ा बताता है तो हमें यह परिचय मिल जाता है कि वह किस सतह से बोल रहा है।
        यह ठीक है कि साहित्य जीवन की बुनियादी आवश्यक्ताओं रोटी, कपड़ा व मकान की पूर्ति नहीं करता है किन्तु यह भी सच है कि वह मनुष्य को मनुष्य होने का मतलब सिखाता है। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं है क्योंकि वह निष्क्रिय भाव से समाज का वर्णन नहीं करता है। साहित्य समाज का दीपक भी है। वह उन पक्षों को विशेष रुप से उभारता है जो समाज के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। वह जीवन और समाज की मूलभूत समस्याओं की पहचान कराता है। प्रसाद ने ‘कामायनी’ में बताया कि इच्छा, क्रिया और ज्ञान का बिखराव ही जीवन की मूल समस्या है। मुक्तिबोध ने ‘अंधेरे में’ कविता में बताया कि सारे शोषक वर्ग का गठजोड सबसे बड़ी चुनौती है।
         साहित्य स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराता है। साहित्य, संस्कृति, समाज व भाषायी विरासत का संरक्षण करता है। वैज्ञानिकता व मशीनीकरण के बढ़ते दबाव में भावनाओं को संरक्षित करने के लिए ही रूसो ‘प्रकृति की ओर लौटो’ का नारा देता है। साहित्य भी यही काम करता है। विज्ञान में शब्द केवल संकेत है उसमें चीजें सूचनात्मक ढंग से ठूसी जाती हैं। साहित्य अधिक जीवंत विधा है। इसमें भाषा का प्रयोग सशक्ततम् तरीके से होता है। साहित्य की वाक्य रचना में अलंकार, मुहावरा, देशज शब्द इत्यादि खिंचे चले आते हैं। साहित्य, भाषा, कल्पना और अनुभव के द्वारा यथार्थ के निकट जाने का प्रयास है। कोई रचना साहित्य है या नहीं; इसका निर्णय हम उसकी भाषा और शिल्प से कर सकते हैं। साहित्य उन सब बातों का निचोड़ होता है जो मनुष्य ने देखा और महसूस किया है। अगर एक वैज्ञानिक अपने विज्ञान के अनुभव को एक अच्छी भाषा और शिल्प कला के माध्यम से कहे तो एक विज्ञान की पुस्तक भी साहित्य की कोटि में आ सकती है। थॉमस अल्वा एडीसन और जेम्स वॉट के प्रयोगों को हम अंग्रजी साहित्य के अन्तर्गत पढ़ चुके हैं। जाहिर है ‘साहित्य क्या है’? की जगह साहित्य के कार्यों और दायित्वों को ज्यादा बेहतर ढंग से बताया जा सकता है।

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