अमीर खुसरो
(1253-1325 ई.)
डॉ. अवधेश पाण्डेय
अमीर खुसरो का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली
नामक जगह पर हुआ था। इनका पूरा नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो ‘देहलवी’ था। अमीर ख़ुसरो भारतीय मां और तुर्की
पिता के संतान थे। अमीर ख़ुसरो के पिता मध्य एशिया के तुर्क थे। इनके पिता
का नाम सैफुदीन था। वे तुर्किस्तान के लाचीन कबीले के सरदार थे। वे चंगेज खां के
अत्याचार से परेशान होकर बलबन के शासन काल में भारत आ गए और यहीं बस गए। अमीर
ख़ुसरो की मां हिन्दू (राजपूत) थी। उनका नाम दौलत नाज़ था। ये दिल्ली के एक रईस अमीर
इमादुल्मुल्क की बेटी थी। ख़ुसरो के नानाजी बलबन के युद्ध मंत्री थे। सल्तनत दरबार
की मजबूरियों के कारण उन्हें इस्लाम धर्म अपनाना पड़ा। इस्लाम अपनाने के बाद भी इनके
घर में हिन्दू-रीति रिवाजों का पालन होता था। इन सबका प्रभाव ख़ुसरो पर पड़ा। अपने
जन्म के कुछ वर्षों के पश्चात ख़ुसरो अपने पिता के साथ दिल्ली चले आए और यहीं पर
बस गए। ख़ुसरो जब 7 वर्ष के हुए तो इनके पिता का देहान्त हो गया।
अमीर ख़ुसरो के पिता इन्हें बेहतर शिक्षा दिलाना
चाहते थे। वे उन्हें सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए। वे औलिया के खनकाह के बाहर
काफी देर तक प्रतीक्षा करते रहे। फिर उन्होंने एक पद रचा और औलिया तक पहुंचवाया।
उसमें लिखा था - ‘तू ऐसा शाह है कि तेरे कंगूरे पर यदि कबूतर आ बैठे तो बाज बन जाए। एक
गरीब तेरे दर पर खड़ा है। वह अंदर आए कि बाहर से ही लौट जाए।‘ औलिया उस पद
से प्रभावित हुए और उन्हें तुरंत अंदर बुला लिया। सूफी संतों के बारे में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है - “पंडित और मुल्लाओं को तो कह नहीं सकते पर साधारण जनता ‘राम
और रहीम’ की एकता मान चुकी थी। साधु और फकीरों को दोनों दीन के लोग आदर और सम्मान
की दृष्टि से देखते थे।...बहुत दिनों तक एक साथ रहते हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे
के सामने अपना-अपना हृदय खोलने लगे थे।...मुसलमान हिन्दुओं की राम कहानी सुनने को
तैयार हो गए थे और हिन्दू मुसलमानों का दास्ताने हमजा। नल-दमयंती की कथा मुसलमान
जानने लगे थे और लैला मजनूं की हिन्दू।“
औलिया के शिष्य बनने के बाद ख़ुसरो का आजीवन
उनसे भावानात्मक संबंध रहा। औलिया सभी धर्मों और परंपराओं का आदर करते थे। यही गुण
ख़ुसरो में भी विकसित हुए। अमीर ख़ुसरो ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच के टकराव को
खत्म करने के लिए भारत की संस्कृति, साहित्य और परंपराओं की प्रशंसा की। ख़ुसरो ने
कहा कि ‘मैंने संस्कृत साहित्य की एक बूंद चखी और
पाया कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी महानदी के विस्तार से वंचित था।‘ ख़ुसरो ने अपने आपको ‘तूती-ए-हिंद’ यानि हिन्दुस्तान का तोता कहा। इन्होंने कहा कि
यदि तुम वास्तव में मुझसे कुछ जानना चाहते हो तो मुझसे हिन्दवी (हिंदी) में बात
करो क्योंकि यही मेरी ज़बान है। खुसरो हिंदी खड़ी बोली के पहले कवि माने जाते हैं।
अमीर ख़सरो ने हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी
भेद को मिटाने के लिए ‘पहेलियों और मुकरियों’ की रचना की। ताकि सवाल-जवाब के क्रम
में दोनों एक-दूसरे के करीब आ जाएं। उनके कई पदों की एक पंक्ति फारसी में है तो
दूसरी खड़ी बोली में है -
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान, हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह| (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना, ना आप आवें, न भेजें पतियां || (हिंदी)
(रोते-रोते आंखें सूज गई हैं। हमेशा इन आंखों से आंसू गिरते रहते
हैं। हृदय में बेचैनी है।
न आंखों में नींद है और न शरीर को सुकून है। प्रियतम न तो खुद आते
हैं और न ही चिट्ठियां भेजते हैं)
ख़ुसरो ने दिल्ली के
सात सुल्तानों का दौर देखा था। उन्होंने दिल्ली के सुल्तानों की प्रशंसा में भी
लिखा लेकिन बाद में उन्हें इसका दुख भी हुआ। ख़ुसरो कहते हैं कि उन्हें सबसे
ज्यादा सुख हिंद की ज़बान में लोगों की आम जिंदगी पर लिखकर मिला। खुसरो ने संगीत
के क्षेत्र में भी काफी प्रयोग किए। इन्होंने तबले का
अविष्कार किया।
भारतीय और ईरानी संगीत को काफी पास लाया। ख़ुसरो की कुछ रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हुई
जैसे - ‘छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइके।‘
अमीर ख़ुसरो को कई
भाषाओं का ज्ञान था। उनकी रचनाएं कई भाषाओं में मिलती हैं। इनमें नूह सिपहर,
तुगलकनामा, आइन-ए-सिकन्दरी, मजनू-लैला, हस्त विहस्त, ख़ालिकबारी इत्यादि हैं। हिन्दी में इन्होंने पहेलियों,
मुकरियों और गीतों की
रचना की।
ख़ुसरो भारतीय इतिहास
के एक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे निजामुद्दीन औलिया से पूरी उम्र जुड़े रहे।
औलिया की मृत्यु के समय वे दिल्ली से बाहर थे। जब उन्होंने यह समाचार सुना तो वह
दिल्ली आ गए। औलिया के मृत शरीर को देखकर उनके मुंह से निकल पड़ा -
“गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।।“
(मेरे आराध्य गुरु बिस्तर पर आराम फरमा रहे हैं। वे इस
संसार से रुख़सत कर चुके हैं। इनके पर्दा करने से संसार से रोशनी विदा हो चुकी है।
अब यहां सिर्फ अंधकार बचा है। अब चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है इसलिए ख़ुसरो तू
भी अपने घर चल)
निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु के 6
महीने की भीतर ही खुसरो की भी मौत हो गई। खुसरो का यह दोहा अमर है। खुसरो को भी
निजामुद्दीन औलिया के मजार के पास दफना दिया गया। उनको गुरु के पैरों की तरफ
दफनाया गया है। दोनों की मजार एक ही परिसर में दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में
मौजूद है। ख़ुसरो के मजार पर होने वाले उर्स का आरंभ इसी दोहे से होता है।
वियोग
रुत में बरसात के होते हैं कभी यार जुदा
मुझ से होता है, वो देखो, मिरा दिलदार जुदा।
अब्रो-बांरा की फ़ज़ा में ये जुदाई का समां
मैं जुदा अश्क फ़िशा, अब्र जुदा, यार जुदा
सब्जा-ओ-गुंचा, गुलो-लाला, सबा सब बाहम
मुझ से है किस लिए ये रौनक़े-गुलज़ार जुदा
आंख खूंबार है तेरे लिए, ए मर्दुमे-चिश्म
कैसे तुझ से हो मिरा, दीदा-ए-खूंबार जुदा
मैंने माना बड़ी नेमत हैं ये आंखें, लेकिन
हैफ़ आंखों से रहे नेमते-दीदार जुदा।
परिचय
- अमीर खुसरो की यह रचना एक वियोग गीत है। प्रेमी-प्रेमिका जब आपस में मिलते हैं
तो उसे संयोग कहा जाता है और जब एक दूसरे से बिछुड़ते हैं तो उसे वियोग कहा जाता
है। इसमें मानव मन के शाश्वत भावों को शब्दों में पिरोया गया है। इसकी रचना
सैकड़ों साल पहले की गई है लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। ये मौसम, ये
बारिस, चारों तरफ फैली हुई हरियाली और रंग-बिरंगे फूल आशिक और माशूक के मिलन को
ज्यादा रोमांचक और सुखद बना देते हैं। लेकिन आशिक और माशूक जब बिछुड़ते हैं तो यही
बारिश, हरियाली और फूल उसको कष्ट देने लगते हैं। खुसरो की यह कविता बिछुड़ने के
दर्द को बयां करती है। आशिक और माशूक जब प्रेम करते हैं तो एक दूसरे में डूब जाते
हैं। अमीर खुसरो ने लिखा भी है -
“खुसरो दरिया प्रेम
का उलटी वाकी धार
जो उतरा वो डूब गया, जो डूबा सो पार”
विरह को प्रेम की कसौटी माना गया है। विरह में ही प्रेम
तपकर सोना बन जाता है इसलिए विरह का भी अपना महत्व है। यह खुसरो का एक सूफीयाना
कलाम है। यह एक तरफ संसारिक प्रेम से जुड़ जाता है तो दूसरी तरफ ईश्वरीय प्रेम से
भी जुड़ जाता है। इसमें इश्क़ मजाजी (शारीरिक प्रेम) से इश्क़ हकीकी (आध्यात्मिक प्रेम)
का सफर तय होता है। उस दिव्य नूर से संबंध बनाने के लिए कोई न कोई माध्यम होना
चाहिए। यह माध्यम मुर्शिद (गुरु) भी हो सकता है और कोई प्रेमी या प्रेमिका भी हो
सकती है। एक सूफ़ी शायर ने कहा है -
‘दौलत मिली है इश्क की, अब और क्या मिले।
वो चीज़ मिल गई है जिससे खुदा मिले।।‘
अब हम वियोग शीर्षक शायरी पर आते हैं -
रुत में बरसात के होते हैं कभी यार
जुदा
मुझ से होता है, वो देखो, मिरा दिलदार जुदा।
शब्दार्थ -
रुत - मौसम,
यार - महबूब
मिरा- मेरा
जुदा - वियोग, बिछोह, बिछुड़न
खुसरो कहते हैं कि बारिश का मौसम बहुत हसीन होता
है। इस मौसम में किसी प्रेमी जोड़े को बिछुड़ना नहीं चाहिए। लेकिन मुझे देखो मेरे
दुख को महसूस करो। इसी मौसम में मेरा यार, मेरी महबूबा मुझसे बिछुड़ गई है।
अब्रो-बांरा की फ़ज़ा में ये जुदाई का समां
मैं जुदा अश्क फ़िशा, अब्र जुदा, यार जुदा
शब्दार्थ -
अब्र - बादल
बांरा - बारिश
फ़जा - मौसम, वातावरण
समां - समय, वक्त
अश्क फ़िशा - बहते आंसू
वातावरण बारिश
के बादलों से घिरा हुआ है और बारिश हो रही है। ऐसे हसीन मौसम में मेरी माशूक मुझसे
बिछुड़ चुकी है। वर्षा ऋतु में हरियाली छा जाती है, बाग हरे भरे हो जाते है।
फ़िज़ा में एक रौनक आ जाती है। ऐसे समय में महबूब से वियोग बहुत कष्ट पहुंचा रहा
है। मैं उसकी जुदाई में रो रहा हूं। मेरी आंखें आंसुओं से नम हैं। मेरी आंखों से
आंसुओं की बारिश हो रही है। लेकिन इस जुदाई में, इस दुख में, इस वियोग में मैं
अकेले नहीं हूं। मैं भी रो रहा हूं और यह बादल भी रो रहा है। ऐसा लगता है कि इस
बादल का भी कोई अपना था जो इसे छोड़कर चला गया है इसलिए यह बारिश नहीं है बल्कि
बादलों के आसुओं का जल है जो पानी की तरह बरस रहा है।
सब्जा-ओ-गुंचा, गुलो-लाला, सबा सब बाहम
मुझ से है किस लिए ये रौनक़े-गुलज़ार जुदा
शब्दार्थ -
सब्जा-ओ-गुंचा
- हरियाली और बाग
गुलो-लाला
- तरह-तरह के फूल
सबा - सुबह की हवा
बाहम - एक साथ
रौनक़े-गुलज़ार
- बाग की रौनक
इसमें बारिस के मौसम का बहुत मनोहारी वर्णन किया
गया है। खुसरो कहते हैं कि बारिश के मौसम में चारों तरफ हरियाली ही हरियाली छा
जाती है। जगह-जगह तरह तरह के फूल खिल जाते हैं। सुबह की हवा इतनी सुखदायी हो जाती
है कि मन को मोह लेती है। लेकिन मैं अपने यार के वियोग में बहुत दुखी हूं इसलिए
बाग की इस रौनक को महसूस ही नहीं कर पा रहा हूं।
आंख खूंबार है तेरे लिए, ए मर्दुमे-चिश्म
कैसे तुझ से हो मिरा, दीदा-ए-खूंबार जुदा
शब्दार्थ -
खूंबार - खून के आंसू
मर्दुमे-चिश्म - आंख वाले
दीदा-ए-खूंबार - खून के आंसू
प्रेम आंखों के जरिए ही शुरू होता है। आंखें
किसी को सबसे पहले देखती हैं और उसके बाद ही प्रेम होता है। प्रेम आंखों से ही
शुरू होकर दिल में उतर जाता है इसलिए प्रेम में बहुत बड़ी भूमिका आंखों की होती
है। खुसरो कहते हैं कि जिन आंखों से प्रेम होता है। आज उनसे खून के आंसू बह रहे
हैं। यह खून के आंसू किसी को याद करके बह रहे हैं। इसलिए जो चार आंखें आपस में
मिला करती थी। आज उनमें से दो आंखें बिछुड़ गई हैं। खुसरो कहते हैं कि हे! आंख
वाली आकर मेरी आंखों में देख! तुझसे जुदा होकर मेरी आंखों से खून के आंसू बह रहे
हैं। मैं सोच रहा हूं कि मेरी आंखें तेरी आंखों से कैसे जुदा हो गई।
मैंने माना बड़ी नेमत हैं ये आंखें,
लेकिन
हैफ़ आंखों से रहे नेमते-दीदार जुदा।
शब्दार्थ -
नेमत - भेंट, उपहार
हैफ़ - अफसोस, खेद
अर्थ - खुसरो कहते
हैं कि मैंने मान लिया कि ये आंखें खुदा की सबसे बड़ी भेंट है। खुदा की बड़ी
अनुकम्पा है, बड़ी कृपा है जो उसने मुझे यह आंखें दी है। मेरी आंखें भगवान का एक
वरदान है लेकिन मेरी आंखों के लिए वरदान मेरी माशूक है। जिसको देख मेरी आंखें
सुकून पाती थी। यह बहुत दुख की बात है कि आज वह इन आंखों से दूर है। मेरी आंखें उसको
देख नहीं पा रही हैं। उसका दीदार नहीं कर पा रही है। यह बहुत बड़ा जुल्म है। बहुत
बड़ा अत्याचार है।
बहुत कठिन
है डगर पनघट की
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊं मथुरा से मटकी।।
पनिया भरन को मैं जो गई थी।
दौड़ झपट मेरी मटकी पटकी।।
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
खुसरो निजाम के बलि-बलि जाइये।।
लाज रखो मेरे घूंघट पट की।
बहुत कठिन है डगर पनघट की।।
अर्थ - खुसरो का यह एक बहुत प्रसिद्ध गीत है। इसमें
खुसरो ने पनघट लीला का वर्णन किया है। यह गीत एक तरफ कृष्ण से जुड़ जाता है तो
दूसरी तरफ इसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। एक अर्थ के अनुसार गोपियां पानी भरने के
लिए मटकी लेकर यमुना नदी में जाती हैं कि भगवान कृष्ण आ जाते हैं और उनकी मटकी
फोड़ देते हैं। इसलिए गोपियां कहती हैं कि यमुना के घाट यानि पनघट पर जाकर पानी
भरना बहुत कठिन है। पनघट की राह बहुत कठिन है। कृष्ण आते हैं मटकी पर झपट पड़ते
हैं और मटकी फोड देते हैं। मैं तो अपने मालिक की (भगवान की) बहुत एहसानमंद हूं कि
उन्होंने मेरे घूंघट की लाज़ रख ली। पनघट जाना वास्तव में बहुत कठिन है। इसमें
कृष्ण की गोपियों के साथ छेड़छाड़ दिखाई गई है।
दूसरे अर्थ के अनुसार ज्ञान मार्ग में ढेर सारी
कठिनाइयां आती हैं। जब भी हम ज्ञान के रास्ते पर चलते हैं तो बहुत सारी कठिनाइयां
हमारा रास्ता रोकती हैं। ज्ञान के रास्ते में बहुत सारे व्यवधान और रूकावटें आती
हैं। खुसरो कहते हैं कि मैं अपने गुरु का बहुत एहसानमंद हूं जिन्होंने इन
कठिनाइयों से उबारकर मेरी लाज रख ली है। इसमें एक ज्ञानी व्यक्ति के कश्मकश को
व्यक्त किया गया है।
अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री
अम्मा मेरे बाबुल को
भेजो री, कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबुल तो बूढ़ा री, कि सावन आया।।
अम्मा मेरे भैया को भेजो री, कि सावन आया।
बेटी तेरा भैया तो बाला री, कि सावन आया।।
अम्मा मेरे मामू को भेजो री, कि सावन आया।
बेटी तेरे मामू तो बांका री, कि सावन आया।।
परिचय - सावन का महीना कुंवारी और
विवाहिता दोनों तरह की लड़कियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। सावन के
महीने में रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। सावन के महीने में ही पार्वती जी
ने भगवान शंकर को पाने के लिए पूजा की थी। सावन के सोमवार का खास महत्व माना जाता
है। इसी महीने में धान की रोपनी शुरू हो जाती है। सावन में हरियाली तीज मनाई जाती
है। इसमें महिलाएं कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं। सावन के महीने में विवाहित स्त्रियां मायके जाने
के लिए अकुलाने लगती हैं। उनको मायके की बहुत याद आने लगती है। उसे सावन का
सुहावना मौसम, गांव में पड़े झूलों, सखियों और गांव की हरियाली की याद आने लगती
है। वह सोचती है कि सावन के महीने में वह अपनी सखियों से हंस बोल लेगी और उनके साथ
झूला-झूल लेगी। मायका ही वह जगह है, जहां स्त्रियां अपनी स्वाभाविक जिंदगी जीती
हैं। वह तेजी से हंस सकती हैं, उछल-कूद कर सकती हैं, सखियों से मीठी-तीखी
नोंक-झोंक कर सकती हैं। एक तो मायके जाने का अपना सुख और ऊपर से यह सावन का महीना
विवाहिता को ललचा रहा है। इस कविता में अमीर खुसरो ने स्त्री मन के अंदर प्रवेश करके
उसकी भावना को बहुत अच्छी तरह से समझ लिया है। स्त्रियां बहुत भावुक होती हैं। जब
वह ससुराल में रहती हैं तो उन्हें मायके की याद आती रहती है और जब मायके में होती
हैं तो उन्हें अपने पति की याद आती रहती है। जिनसे मिलने के लिए वह तरह-तरह के जतन
करती हैं।
अर्थ - इस कविता में एक विवाहित स्त्री
सावन के महीने में अपनी मां को संदेश भिजवाती है कि वह पिता, भाई, चाचा किसी को भी
भेज दे ताकि वह उनके साथ मायके आ सके। वह कहती है हे अम्मा पिता जी को भेज दो ताकि
वह मुझे यहां से ले जा सकें। सावन का महीना आ गया है और मुझे मायके की बहुत याद आ
रही है। अम्मा कहती हैं कि बेटी अब वह बहुत बूढ़े हो चुके हैं। तुम्हें ले आने
उन्हें इतनी दूर कैसे भेज दूं।
फिर वह कहती है कि बाबुल (पिता)
को नहीं भेज सकती तो कोई बात नहीं। भाई को ही भेज दो। इस पर अम्मा कहती हैं कि उसे
कैसे भेज दूं। अभी तो वह बच्चा (बाला) है। मैं भी चाहती हूं कि सावन में तुम यहीं
रहो लेकिन कोई उपाय तुम्हें वहां से ले आने का दिख नहीं रहा है।
वह लड़की अपनी मां से कहती है कि
फिर मुझे ले आने के लिए मामू को ही भेज दो। इस पर उसकी मां कहती है कि तुम तो
जानती हो कि तुम्हारा मामा बदमाश आदमी है। उसको कैसे भेज सकती हूं। तुम ले आने के
लिए किसी जिम्मेदार आदमी को ही भेजा जा सकता है। इस तरह से वह स्त्री मायके जाने
के लिए तड़प रही है जिसके मन की बातें अमीर खुसरो बता रहे हैं।

अति सुंदर व्याख्या, धन्यवाद
जवाब देंहटाएं