संत नामदेव
(1269-1350 ई.)
डॉ. अवधेश पाण्डेय
भक्ति आंदोलन एक
अखिल भारतीय आंदोलन था। इस समय भक्ति की ऐसी लगन लगी कि देश के हर कोने के संत और
भक्त की वीणाएं झनझना उठी। उत्तर भारत से कबीर, सूर, तुलसी, रसखान, मीराबाई,
गुजरात से नरसी मेहता, आसाम से शंकरदेव, बंगाल से जयदेव, दक्षिण भारत से आण्डाल,
कश्मीर से लल द्यद और महाराष्ट्र से संत नामदेव भक्ति के गीत गाने लगे।
नामदेव
महाराष्ट्र के संत थे। इनका नाम ‘संत पंचायतन’ यानि पांच प्रमुख संतों में बहुत
आदर के साथ लिया जाता है। ‘संत पंचायतन’ में संत नामदेव के अतिरिक्त ज्ञानदेव,
एकनाथ, सर्मथ रामदास तथा तुकाराम की गणना की जाती है। नामदेव को भक्तिमार्ग का
प्रर्वतक माना जाता है। इनके पद सगुण और निर्गुण दोनों में पाए जाते हैं लेकिन
इनके निर्गुण पदों की संख्या सगुण पदों से काफी अधिक है।
संत नामदेव का
जन्म 1269 ई. में महाराष्ट्र के सतारा जिले के नरसी गांव में हुआ था। यह गांव
कृष्णा नदी के तट पर बसा था। नामदेव के पिता जी दामाशेट्टी भगवान विट्ठल के भक्त
थे। वे नामदेव के जन्म के दो साल पहले ही पंढ़रपुर आकर बस गए थे। इनकी माता का नाम
गुनाबाई था। परिवारों के संस्कारों का प्रभाव बालक नामदेव पर पड़ा। बालक नामदेव भी
बचपन से विट्ठल की उपासना करने लगे। इनका मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगा। इनके
पिताश्री ने इन्हें व्यापार में लगाना चाहा लेकिन यह अक्सर कपड़े बेचने जाते और
विठोबा के भजन में लीन हो जाते।
नामदेव
महाराष्ट्र के छीपी (दर्जी) परिवार में पैदा हुए थे। संत रविदास ने इन्हें नीच कुल
में पैदा होकर भी गोविंद की कृपा से ऊंची पदवी तक पहुंचने वाला बताया है। आठ वर्ष
की उम्र में नामदेव का विवाह राजबाई के साथ हो गया। इनकी पांच संतानें हुई जिनमें
चार पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम नारायण, महादेव, गोविंद और विट्ठल था।
इनकी पुत्री का नाम लिंबाबाई था। इनके जीवन से जुड़ी कई कथाएं मिलती हैं। एक कथा
के अनुसार एक बार इनके पिताजी को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। वह नामदेव को कहकर
गए कि भगवान विट्ठल को भोग लगाकर ही खुद खाना। बालक नामदेव पिता की आज्ञा अनुसार
दूध ले जाकर भगवान विठ्ठल की मूर्ति के सामने रख देते हैं और भगवान को वह दूध पीने
के लिए कहते हैं। नामदेव जी को यह मालूम नहीं था कि पथ्थर की मूर्ति दूध पीने नहीं
आती। जब काफी देर तक दूध पीने भगवान नहीं आए तो संत नामदेव को लगने लगा कि उनसे
कोई गलती हो गई है इसलिए भगवान उनके हाथ से दूध ग्रहण नहीं कर रहे हैं। वह रोने
लगे। फिर मजबूर होकर भगवान को आकर इनके हाथ से दूध पीना ही पड़ा।
संत नामदेव के
जीवन से जुड़ी एक कथा में कहा गया कि एक समय नामदेव एक मंदिर के दरवाजे पर जाकर
कीर्तन करने लगे। वहां के पंडित पुजारियों ने इन्हें निम्न जाति का समझकर इन्हें
वहां से भगा दिया। नामदेव निराश होकर मंदिर के पीछे चले गए और वहीं बैठकर भजन गाने
लगे। जैसे ही नामदेव ने अपना कीर्तन शुरू किया; मंदिर का द्वार पूर्व की ओर से
पश्चिम की ओर हो गया। इस तरह से नामदेव मंदिर के सामने और पंडित लोग मंदिर के
पिछवाड़े चले गए। इसके बाद सारे पंडितों ने नामदेव से माफी मांग ली और इन्हें उचित
सम्मान दिया।
इन्होंने संत
ज्ञानेश्वर के साथ पूरे भारत का भ्रमण किया। ज्ञानेश्वर ने आलंदी गांव में जीवित
ही समाधि ले ली थी। उस समय नामदेव जी उनके साथ में थे। इस घटना से नामदेव को काफी
दुख पहुंचा। इस दुख को इन्होंने अपने कई अभंगों में व्यक्त किया है। इन्होंने
विसोवा खेचर को अपना गुरु बनाया और ‘अभंग’ रचे। ‘अभंग’ दोहे शैली में की गई रचना होती
है। इन्होंने लगभग 4000 अभंग रचे। इन अभंगों के विषय नाम स्मरण, ईश्वर की आराधना,
ध्यान, पूजा, कीर्तन इत्यादि हैं। इनके पद मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी मिलते
हैं। इनके कुछ पद ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में भी पाए जाते हैं। कबीर, मीराबाई इत्यादि
नामदेव के बहुत बाद हुए हैं। कबीर ने नामदेव का नाम बहुत आदर से लिया है।
नामदेव बहुत भोले और भावुक हृदय के व्यक्ति
थे। वे सभी प्राणियों को भगवान का रूप समझते थे। एक बार इन्होंने रोटी बनाई और घी
लाने के लिए ज्यों ही अंदर गए; एक कुत्ता आया और इनकी रोटी लेकर भाग गया। नामदेव
घी लेकर उसके पीछे दौड़ पड़े और कहने लगे - ‘भगवन इन रोटियों को रूखी-सूखी मत खाओ-
लाइए उसमें घी चुपड़ देता हूं।‘
बचपन में नामदेव मूर्ति पूजा के कट्टर सर्मथक
थे। लेकिन धीरे-धीरे मूर्ति पूजा और कर्मकांडों से इनका विश्वास उठता चला गया। यह
कहते हैं, ‘जी करता है कि जल से विट्ठल को स्नान कराऊं, फूल की माला उन्हें पहनाऊं
और दूध से खीर बनाकर भगवान को भोग लगाऊं। फिर मैं सोचता हूं कि जिस जल से मैं
स्नान कराऊंगा, उसमें पहले ही लाखों जीव जन्तु मर चुके हैं जिससे वह अशुद्ध हो
चुका है। भौंरों ने उन फूलों का रस पहले ही चूस लिया है और दूध को तो बछड़ा ही
जूठा कर चुका होगा। फिर ऐसी पूजा करना व्यर्थ है। मुझे तो ऐसे ही चारों तरफ विट्ठल
ही विट्ठल दिखते हैं।‘
नामदेव कहते
हैं कि पृथ्वी को बारिश अच्छी लगती है। भौंरों को फूलों का रस अच्छा लगता है। कोयल
को आम की बौर अच्छी लगती है। बच्चे को दूध पीना अच्छा लगता है। मछली को पानी में
रहना अच्छा लगता है। इसी तरह से मुझे विट्ठल अच्छे लगते हैं जिससे मेरा मन उनमें
रमा रहता है।
नामदेव कहते
हैं कि सोनार जब सोना तौलता है तो उसकी नजर सोने पर लगी रहती है। पतंग उड़ाने वाला
पतंगबाजी पर ध्यान देता है। सर पर घड़े लेकर जाती स्त्रियां भले ही आपस में
बातचीत-हंसी मजाक करती हों लेकिन उनकी नजर घड़े पर लगी रहती है। अपने बच्चे को
छोड़कर पांच कोस दूर घास चरने वाली गाय का ध्यान अपने बच्चे की ओर लगा रहता है।
बच्चे को पालने में सुलाकर घर का काम करने वाली औरतों का ध्यान अपने बच्चे की तरफ
लगा रहता है। इसी तरह से मैं कुछ भी का करूं, मेरा मन भगवान में लगा रहता है।
बाजी रची
बाजी रची बाप बाजी रची । मैं
बलि ताकी जिन र बची ॥
बाजी जांमण बाजी मरनां । बाजी
लागि रह्यो रे मनां ॥
बाजी मन मैं सोचि बिचारी । आपै
सूत आपै सुत्रधारी ॥
नांमदेव कहै तेरी सरनां । मेटि
हंमारै जांमण मरनां ॥
बाजी रची बाप बाजी रची ।
भक्त नामदेव इस पद में ईश्वर की महिमा का बखान करते हैं। ईश्वर जो कि हमारा
मालिक है, हमारा बाप है। उसने ही खेल-खेल में इस संसार की रचना की है। उसने ही यह
दुनिया बनाई है। संसार की रचना बस उसके हाथों का जादू है। यह दुनिया एक Magic Show है।
मैं बलि ताकी जिन र बची ॥
मैं उन लोगों
को सौभाग्यशाली समझता हूं जो ईश्वर के इस खेल से बच गए हैं। जिनको इस सांसारिक खेल
में शामिल नहीं किया गया है; वे बड़े भाग्यवान हैं।
बाजी जांमण बाजी मरनां ।
हमारा जीना
और मरना उसकी मुट्ठी में है। उसकी इच्छा से ही हम जन्म लेते हैं और उसकी इच्छा से
ही मरते हैं। उसकी इच्छा के बिना संसार का एक पत्ता तक नहीं हिलता। सब कुछ भगवान
के हाथ में ही है। हमारा जन्म लेना उसके हाथों का एक जादू है और हमारी मृत्यु उसके
लिए बस एक खेल है।
बाजी लागि रह्यो रे मनां ॥
ईश्वर के इसी
खेल में हमारा मन लगा रहता है। हम जीवन भर उसकी जाल में उलझे रहते हैं। हम कभी उस
जाल से निकल नहीं पाते।
बाजी मन मैं सोचि बिचारी ।
नामदेव कहते
हैं कि हे मन! तू इस खेल को समझ। अपने मन में सोच-विचार कर और कोई निर्णय ले। नहीं
तो इस खेल में वह हमेशा उलझा ही रहेगा। उस ईश्वर की महिमा को समझ और उसमें अपना मन
लगा।
आपै सूत आपै सुत्रधारी ॥
नामदेव कहते
हैं कि हे भगवान! इस दुनिया को बनाने वाले और चलाने वाले आप ही हैं। इस बात को मैं
बहुत अच्छे से समझ गया हूं।
नांमदेव कहै तेरी सरनां ।
नामदेव कहते
हैं कि भगवान मैं आपकी लीला को बहुत अच्छे से समझ गया हूं। सब समझने के बाद मैं
आपकी शरण में आया हूं। कृपया मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।
मेटि हंमारै जांमण मरनां ॥
नामदेव भगवान
से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान मैं आपकी शरण में आया हूं। मैं बार-बार इस जन्म
और मृत्यु के चलने वाले चक्र से थक गया हूं। कृपा करके मुझे इस जन्म-मृत्यु के
चक्र से छुटकारा दिलवा दीजिए।
शब्दार्थ -
बाजी - खेल, तमाशा, भगवान की लीला
जांमण - जन्म लेना
सरनां - शरण
तुझ बिन क्यों
तुझ बिन क्यों जीऊं रे तूं मंझा प्राण अधार ।।
सार तुम्हारा नांव है फूटा सब संसार ।।
मनसा बाचा क्रमना कलि केवल नांव अधार ।।
दुनिया मैं दोजग घणा दारण दुष अधिक अपार ।।
चरण कंवल की मौज मैं मोहि राषौ सिरजनहार ।।
मो तो बिचि पडरा किसा लोभ बडाई कांम ।।
कोई एक हरिजन ऊबरै जिनि सुमिरयौ निहचल रांम ।।
लोक वेद कै संगि बह्या सलिल मोह की धार ।।
जन नांमदेव कौ स्वांमीं बीठला मोहि षेइ उतरौ पार ।।
तुझ बिन क्यों जीऊं रे तूं मंझा प्राण अधार ।।
भक्त नामदेव भगवान विट्ठल से कहते हैं कि हे
भगवान! मैं तुम्हारे बिन कैसे जीवित रहूं। आप ही मेरे जीवन और आत्मा के एकमात्र
सहारा हो। तुम ही मेरे प्राण के एकमात्र आधार हो।
सार तुम्हारा नांव है फूटा सब संसार ।।
इस संसार में झूठ का बोलबाला है। यह अच्छे गुणों
से खाली हो गई है। इस संसार से पार उतरने में आपका नाम ही मेरा सहारा है। यह
दुनिया बिल्कुल फूट सी गई है। अब यह सज्जनों के रहने लायक नहीं बची। इसलिए नामदेव
आपके नाम के सहारे इस संसार रूपी नदी को पार करना चाहता है।
मनसा बाचा क्रमना कलि केवल नांव अधार ।।
इस कलियुग में आपका नाम भजना ही एक मात्र सहारा
है। इसलिए मैं मन, कर्म और वचन से आपका नाम लेता रहूंगा क्योंकि मैं समझ चुका हूं
कि कलियुग की बुराइयों से केवल आप ही बचा सकते हैं। इस कलियुग में केवल आपके नाम
का ही सहारा है।
दुनिया मैं दोजग घणा दारण दुष अधिक अपार ।।
दुनिया में दुख ही दुख हैं। ऐसे-ऐसे अंतहीन दुख
हैं जिन्हें कोई नाप नहीं सकता। इस दुनिया मैं बहुत तरह के नरक हैं। जिनसे सामान्य
इंसान पार नहीं पा सकता। वह कितना भी बचे लेकिन कोई न कोई दुख उसे अवश्य घेरे रहता
है।
चरण कंवल की मौज मैं मोहि राषौ सिरजनहार ।।
मैं दुनिया के दुखों को समझ चुका हूं। मैं आपकी
शरण में आया हूं। हे भगवान मेरे ऊपर कृपा करिए। मुझे अपने कमल की पंखुडियों जैसे
कोमल चरणों में स्थान दे दीजिए। हे सबको जन्म देने वाले, सबको बनाने वाले ईश्वर
मुझे अपने चरणों में जगह दे दीजिए। मैं बहुत मौज से, बहुत मस्ती से वहां रह लूंगा।
मो तो बिचि पडरा किसा लोभ बडाई कांम ।।
मेरे और आपके बीच पर्दा कैसा। इस संसार में लोभ,
लालच और काम वासना ही नजर आती है। इस लोभ, लालच और काम वासना के पर्दे को मैंने
गिरा दिया है। इसलिए अब हमारे और आपके बीच कोई दुराव-छिपाव नहीं है कोई पर्दा नहीं
है।
कोई एक हरिजन ऊबरै जिनि सुमिरयौ निहचल रांम ।।
इस लोभ, मोह और काम से जो इस पूरे संसार में
व्याप्त है। वही भक्त पार उतर सकता है जो निश्छल, निष्कपट रूप से भगवान का सुमिरन
करता है। भगवान का नाम लेता है। लाखों में कोई एक भक्त ऐसा होता है जो सरल हृदय से
भगवान का नाम लेता है और इस संसार रूपी भवसागर से पार उतरता है।
लोक वेद कै संगि बह्या सलिल मोह की धार ।।
लोक और वेद को जानने वाले भी मोह की तीव्र धारा
में बहते जा रहे हैं। मोह से लगाव लोगों का इतना अधिक है कि वेद और शास्त्र भी उन
पर बेअसर हो रहे हैं।
जन नांमदेव कौ स्वांमीं बीठला मोहि षेइ उतरौ पार ।।
नामदेव कहते हैं कि हे! स्वामी बिट्ठल अपने इस
सेवक को इस मोह की तीव्र धारा से बचाते हुए मुझे इससे पार करो। मैं अकेले इसे पार
नहीं कर सकता इसलिए हे स्वामी आप मुझे इसे पार कराएं।
शब्दार्थ- बाजी - खेल, तमाशा
जांमण -
जन्म लेना
मंझा -
मेरा
कलि -
कलियुग
नांव -
नाम
दोजग -
नरक
घणा -
घना
दुष -
दुख
सिरजनहार
- भगवान जिसने यह दुनिया बनाई है
निहचल -
निश्छल, सरल
बीठला -
विट्ठल (भगवान कृष्ण)

Osm sir ache se smjh agya
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