सोमवार, 11 मई 2020

LLC, Apsanskriti, अपसंस्कृति


अपसंस्कृति

सांस्कृतिक-पतन या अनुचित संस्कृति को अपसंस्कृति कहते हैं। अपसंस्कृति ऐसी आचार या पद्धति है जो उच्च या श्रेष्ठ मूल्यों के विरूद्ध है। भारत पर लगभग दो सौ वर्ष तक शासन करने के बाद अगस्त 1947 में अंग्रेज भारत से चले गए। साम्प्रदायिक वैमनस्य के जहर के साथ वे यहां भीषण गरीबी भी छोड़ गए। अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने अपने शासन काल में बड़ी चतुराई के साथ इस देश की प्राचीन संस्कृति को नष्ट कर दिया और जो संस्कृति बची रही, उसके प्रति अनास्था उत्पन्न कर दिया।
आजादी की लड़ाई के समय हमारे देश के नेताओं और देशवासियों ने त्याग, बलिदान, परोपकार, सरलता, निर्भीकता जैसे गुण लोगों में जगाए जबकि आज राष्ट्र के प्रति इन आदर्श भावों का लोप हो गया है। आज इनके स्थान पर स्वार्थ, असहिष्णुता, वैमनस्य, भ्रष्टाचार, अनैतिकता जैसे अवगुणों ने लोगों के दिलों में जड़ें जमा ली है।
भारत में शिक्षा का ढांचा अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों को तैयार करने के लिए खड़ा किया गया था। इसे मैकाले की सिफारिश पर अंग्रेजों ने खड़ा किया था। आज भी शिक्षा का वही ढांचा है। बस उसमें थोड़ा सा बदलाव यह हुआ है कि आर्थिक विकास के लिए जरूरी समझे जाने वाले कुछ विषयों का प्रशिक्षण देने के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज, आई.आई.टी., मेडिकल कॉलेज, बिजनेस मैनेजमेंट जैसे संस्थान खोल दिए गए। स्कूली शिक्षा का ढांचा भी इन संस्थानों में प्रवेश पाने की दृष्टि से ही बनाए गए। इन संस्थानों में प्रवेश पाने वाले ही अच्छा पैसा कमाते थे और समाज उन्हीं को बेहतर मानने लगा। शिक्षा की इस व्यवस्था में न तो चरित्र निर्माण का कोई संकल्प है और न जीवन की चुनौतियों से जूझने का कोई संकल्प। इसलिए कोई शिक्षित व्यक्ति अपने विषय का विद्वान हो सकता है लेकिन वह अच्छा मनुष्य या अच्छा नागरिक भी हो, यह जरूरी नहीं है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है। इसका जीवन निर्माण और संस्कार से ज्यादा लेना देना नहीं है। इसका एक मात्र उद्देश्य अधिक से अधिक धन कमाना और समाज में अपनी धाक जमाना रह गया है।
मनुष्य आज भी स्वाभाव से एक सामाजिक प्राणी है लेकिन एकल जीवन समाज में बढ रहा है। इसे देखकर पुरानी पीढ़ी के लोग हैरान हैं कि राम, भरत, सीता, सावित्री जैसे लोगों को जन्म देने वाली यह धरती माता-पिता को ही एक बोझ मान बैठी है। परिश्रम और ईमानदारी से कमाई गई सूखी-रोटी की मिठास खत्म हो गई है। बाजार लोगों पर हावी हो गया है। लोग इलेक्ट्रानिक सामानों में ही सुख तलाशने लगे हैं। अपसंस्कृति से निपटने के लिए हमें पुरानी संस्कृति के शाश्वत मूल्यों को पुनः जगाना होगा और अपने राष्ट्रीय जीवन में अपनाना पड़ेगा।
प्राचीन काल से ही भारत दर्शन, ज्योतिष, योग, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, ज्यामिती, गणित, चिकित्सा इत्यादि में बहुत आगे रहा है। हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपराओं के पीछे कोई न कोई आदर्श जरूर होता था। इसलिए हमारी संस्कृति के दीवाने पूरी दुनिया में पाए जाते हैं। आज इन परंपराओं को हम रूढिवादी मानकर नकारने लगे हैं। आज इसे बचाने की सबसे ज्यादा जरूरत है। हमारी संस्कृति धीरे-धीरे अपसंस्कृति में बदलती जा रही है। यदि हम अपनी संस्कृति को बचा पाए तो हम टूटते घर-परिवारों और विघटित होते जा रहे मूल्यों को बचाने में भी कामयाब होंगे।
आज टीवी चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। ज्यादा से ज्यादा दर्शक और विज्ञापन वे कैसे खींच लें, उनका सारा जोर इसी पर है। इस होड़ में नैतिकता और मानव मूल्य बहुत पीछे छूट चुके हैं। टीवी हमारी जीवन शैली और परंपरा को तय कर रहा है। वह हमारे वस्त्र, भाषा और आचरण को भी तय कर रहा है। मिश्रित संस्कृति के इस दौर में हमें नई चीजों को सोच समझकर अपनाने की जरूरत है। कालीदास ने सच ही लिखा है -
पुरानी होने से ही हर वस्तु अच्छी नहीं हो जाती और न ही नई होने से ही कोई बुरी। केवल मूढ़ भेड़चाल को अपनाते हैं, जबकि बुद्धिमान अपने विवेक से अच्छाई-बुराई का विचार करके स्वयं चुनाव करते हैं।

1 टिप्पणी: