बुधवार, 13 मई 2020

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मिर्जा ग़ालिब 


असदुल्ला खान बेग मिर्जा ग़ालिब उर्दू एवं फारसी भाषा के शायर थे। फारसी कविता को हिन्दुस्तानी ज़बान में लोकप्रिय करने का श्रेय इन्हें ही है। इनके जीवन और इनकी शायरी से जुड़े इतने किस्से हैं कि कई बार असमंजस में पड़ जाता हूं कि क्या बताऊं और क्या न बताऊं। यह असमंजस ग़ालिब को भी हो जाता था। जब कोई उनसे उनके बारे में पूछता था -

‘वो पूछता हैं कि ग़ालिब कौन था, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?

ग़ालिब का जन्म 27 दिसम्बर 1797 को आगरा में हुआ था। इनके दादा मिर्ज़ा कोबान बेग 1750 के आस-पास मध्य एशिया के समरकन्द से भारत आए थे। यह उत्तर मुगल शासक अहमदशाह के समय में भारत आए थे। इन्होंने दिल्ली, लाहौर और जयपुर में काम किया था और अंत में आगरा में आकर बस गए थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के पिता मिर्जा अब्दुल्ला बेग खान थे। उन्होंने लखनऊ के नबाब और हैदराबाद के निज़ाम के यहां काम किया था। अंत में वे ब्रिटिश सेना से जुड़े। उनकी 1803 में मौत हो गई। उस समय ग़ालिब केवल 5 साल के थे। चाचा जी ने आगे इनका पालन-पोषण किया।
      11 साल की उम्र में ग़ालिब ने शायरी लिखनी शुरू कर दी थी। 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से इनका निकाह हो गया। यह नबाब इलाही बख्स की बेटी थी। ग़ालिब के 7 बच्चे हुए लेकिन कोई भी बच्चा ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह सका। इन्होंने अपनी पत्नी के भतीजे के  बच्चे को गोद लिया लेकिन उसकी भी 35 साल की आयु में मृत्यु हो गई। ग़मों में डूबे ग़ालिब शायरी और शराब में पूरी तरह डूब गए। ग़ालिब को जुए की भी लत लग गई थी जिसके कारण 1847 में यह गिरफ्तार हुए और जेल की सजा भी काटे। यह आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में भटकते हुए अंतिम रूप से दिल्ली में बस गए। ग़ालिब दिल्ली के चांदनी चौक के बल्लीमारान इलाके के कासिमज़ान गली में रहते थे। यह अपने अंदाजे-बयां के लिए जाने जाते थे। इनकी शायरी कहने का ढंग बहुत निराला था -

‘हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयां और’
(शायर तो दुनिया में बहुत हैं, लेकिन ग़ालिब की शायरी का ढंग सबसे निराला है)
ग़ालिब के समय में शायरी करने का एक परंपरागत ढांचा बन चुका था। उसमें आशिक, माशूक, रकीब (प्रेमी का प्रतिद्वंदी), साकी और शेख (धर्म गुरु) के आसपास घूमती थी। ग़ालिब की शायरी भी इन सब के आसपास घूमती रहती है लेकिन वह बहुत खूबसूरती से समाज और लोगों से जुड़ जाती है -
‘दिल-ए-नांदा तुझे हुआ क्या है - आखिर इस दर्द की दवा क्या है...
जान तुम पर निसार करता हूं, मैं नहीं जानता दुआ क्या है।
मैंने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब, मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है।‘

ग़ालिब ने कभी रोज़ा नहीं रखा। एक बार एक अंग्रेज अधिकारी के पूछा कि उनका दीन क्या है तो उन्होंने अपने आपको आधा मुसलमान कहा। कारण पूछने पर उन्होंने कहा, ‘क्योंकि मैं शराब पीता हूं लेकिन सुअर नहीं खाता। ग़ालिब का घर मस्जिद के ठीक नीचे था। लोग इनको कहते रहते कि मस्जिद के आसपास बैठकर शराब मत पीया करो। तब ग़ालिब ने कहा -

‘जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो।‘

ग़ालिब एक आसान जिंदगी की वकालत करते थे -

‘कुछ इस तरह से ज़िन्दगी, को आंसां कर लिया
किसी से माफ़ी मांग ली और किसी को माफ़ कर दिया।‘

इनको जन्नत और जहन्नुम वाले दर्शन में यकीन नहीं था -

‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।‘

यह अपने दोस्तों की संगत में आनंद पाते थे और हर समय मिलने को आतुर रहते थे -

‘मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं।‘

मिर्जा ग़ालिब अपनी हाज़िर ज़बाबी के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। एक दिन वह आम खा रहे थे। एक गधा कहीं से घूमता हुआ आया और इनके द्वारा फेंके गए छिलके को सूंघकर चला गया। यह देखकर किसी ने कहा कि देखिए गधे भी आम नहीं खाते। ग़ालिब ने तुरंत कहा कि ‘इसमें कोई शक नहीं कि गधे आम नहीं खाते।‘ जीवन के अंतिम दिनों में इनके शरीर में दर्द रहता था। एक दिन इनके मित्र आए और इनका पैर दबाने लगे। ग़ालिब ने पैर दबाने से मना किया। इस पर मित्र ने कहा कि आपको खराब लग रहा हो तो आप इसकी मज़दूरी दे दीजिएगा। पैर दबाने के के के बाद जब वह मजदूरी मांगने लगे तो ग़ालिब ने दर्द के बावजूद हंसकर कहा कि आपने मेरे पैर दाबे, मैंने आपके पैसे दाबे। हिसाब बराबर।
1850 में वह बहादुरशाह जफ़र से जुड़े। ग़ालिब की मुगल दरबार में काफी इज्ज़त मिली। 1850 में बहादुरशाह जफ़र ने इन्हें ‘दबीर-उल-मुल्क’ और ‘नज्म़-उद-दौला’ के खिताब से नवाज़ा। बाद में इन्हें ‘मिर्ज़ा नोशा’ की भी उपाधि मिली। उन्होंने जफ़र साहब और शहज़ादों को शायरी की बारीकियां सिखाई। इनको मुगल दरबार से पेंशन मिलने लगी थी। 1857 में अंग्रेजों ने मुगलों की सल्तनत खत्म कर दी। इसके बाद इनको पेंशन मिलना भी बंद हो गई।
15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब की दिल्ली में मौत हो गई। ग़ालिब की कब्र निजामुद्दीन इलाके में आज भी मौजूद है। ‘यादगार-ए-ग़ालिब’ (1897) और हयात-ए-ग़ालिब’ (1899) नाम से दो जीवनियां इनके समय के शायरों हॉली और मिर्ज़ा मौज़ द्वारा लिखी गई। ये जीवनियां ग़ालिब को समझने में बहुत मदद करती हैं।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी

इस ग़ज़ल में आम आदमी की इच्छाएं, आशाएं और उसकी परेशानी बताई गई है। इस ग़ज़ल का हर श़ेर अपने आप में स्वतंत्र है और उसका अर्थ भी स्वतंत्र है। यानि की ग़ज़लों की यह श्रंखला आपस में कहानी की तरह नहीं बुनी गई है। हर शेर अपने आप में एक कहानी कहता है और हर कहानी अपने आप में पूरी है।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

इंसान के अंदर हजारों ख़्वाहिशें भर दी गई हैं। इसान की इच्छाएं अनंत हैं और एक इच्छा पूरी करने में पूरी जिंदगी निकल जाती है। आप कितनी भी कोशिशें कर लें, आपकी चंद ख़्वाहिशें ही पूरी होती हैं। ग़ालिब कहते हैं कि मेरे जितने अरमान पूरे हुए, उससे कहीं अधिक अधूरे रह गए। मेरी जिंदगी में जो अरमान थे, कई बार वह पूरे हुए लेकिन वह मेरी उम्मीदों से बहुत कम थे।

डरे क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूं जो चश्मे-तर-से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

यहां ग़ालिब अपने महबूब से कहते हैं कि मेरे महबूब मेरा कत्ल करने से मत डरो। कत्ल का इल्जाम मैं तुम्हारे ऊपर नहीं आने दूंगा। लेकिन मैं चाहता हूं कि तुम मेरा ऐसा कत्ल करो कि उम्र भर हर समय मेरी आंखों खून से तर रहें। तुम सजा से मत डरो। मेरी तरफ से सारी ख़ता माफ है। ग़ालिब ने एक जगह कहा भी है कि -
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल।
जब आंख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है।।

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बे-आबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले

ग़ालिब कहते हैं कि जन्नत से आदम को निकाला गया था। यह तो मैं बराबर सुनता आ रहा हूं। लेकिन जितना अपमानित होकर मुझे अपनी प्रेमिका की गली से निकाला गया। इतना अपमानित तो आदम भी नहीं हुआ था। (आदम को अल्ला ताला ने मिट्टी से बनाकर उसमें जान फूंकी थी। इब्लीस को अल्ला ताला ने आग से बनाया था। अल्लाह कोई हुक्म देता था तो आदम उसको मान लेता था लेकिन इब्लीस नहीं मानता था। चूंकि वह आग से पैदा हुआ था इसलिए उसमें इस बात का घमंड था। एक दिन नाराज होकर वह अल्लाह ने इब्लीस को जन्नत से निकाल दिया। अपनी शैतानी आदतों के कारण ही इब्लीस शैतान कहा गया। आदम पूरे जन्नत में अल्लाह के हुक्म से घूमते थे। उन्हें सब कुछ खाने की आज़ादी थी सिर्फ आनाज को छोड़कर। एक दिन शैतान ने आदम को भड़का दिया जिससे उन्होंने आनाज खा लिया। इसके बाद से अल्लाह ने नाराज होकर आदम और हौव्वा को पृथ्वी पर भेज दिया) ग़ालिब की शायरी पुरानी दिल्ली के कोठों पर भी गाई जाती थी। एक दिन वे कोठे पर पहुंचे और इनकी शायरी गाने वाली तवायफ़ से इन्हें प्यार हो गया। वह मन ही मन ग़ालिब को पसंद करती थी। उसकी कल्पना में एक नबाबों जैसा शानो-शौकत वाले ग़ालिब थे। जब ग़ालिब उसके पास पहुंचे और बताया कि मैं ही ग़ालिब हूं तो उसे जरा भी विश्वास नहीं हुआ। वह इन्हें हिकारत की नज़र से देखने लगी। ग़ालिब यह देखकर उल्टे पांव लौट आए और दुबारा वहां कभी नहीं गए। इसलिए ग़ालिब लिखते हैं कि बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले। बाद में उस तवायफ़ को पता चला कि आने वाला इंसान ग़ालिब ही था तो उसे पछतावा हुआ।

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेचओख़म का पेचओख़म निकले

स्त्रियां अक्सर अपने कद-काठी पर गुमान करती हैं। यहां पर ग़ालिब अपनी प्रेमिका को कहते है कि जिस कद और लंबाई पर वह गर्व करती है, अगर उसके घुंघराले बालों के लटों को सीधा कर दिया जाए तो उसके बाल उसकी लंबाई से अधिक लंबे निकलेंगे। इस तरह से अपनी लंबाई का जो भ्रम वह पाल बैठी है, वह भ्रम दूर हो जाएगा। यहां शायर निंदा करने के बहाने भी प्रसंशा कर रहा है क्योंकि लंबे बाल सुंदर स्त्री की पहचान माने जाते हैं। अधिकतर महिलाएं अपनी सुंदरता पर कोई टीका-टिप्पणी बर्दाश्त नहीं करती हैं। इस बात को गालिब भी जानते हैं। इसलिए वह सिर्फ तारीफों के पुल ही बांधते हैं।

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

ग़ालिब कहते हैं कि यदि कोई अपने महबूब को खत लिखवाना चाहता है तो मुझसे लिखवा ले क्योंकि मैं प्यार और भावनाओं को बहुत गहराई से समझता हूं। मैं रात से लिखना शुरू करूंगा और लिखते-लिखते सुबह हो जाएगी। इसके बाद मैं दिन में कहीं निकलूंगा तो कान पर कलम रखकर निकलूंगा और जहां मौका मिलेगा वहां फिर से लिखना शुरू कर दूंगा।

हुई इस दौर में मंसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम निकले

ग़ालिब उस दौर को याद करते हैं जब वह शराबखोरी में मस्त रहा करते थे। लोग इनकी तरफ उंगली से इशारा करते थे और कहते थे कि यह सच्चा शराबी है। वह ऐसा दौर था कि जैसे ग़ालिब के हाथ जमशेद बादशाह का प्याला लग गया था। वह उस प्याले में शराब पीकर पूरी दुनिया की गूढ़ से गूढ़ बातें समझ जाते थे। उसकी कल्पनाशक्ति एकदम से जग जाती थी और वह हर घटना को बारीकी से समझ जाते थे।

हुई जिनसे तव्वको ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले

अपने मुश्किल दिनों में ग़ालिब को अपने लोगों से सहानुभूति पाने की उम्मीद थी। लेकिन जिनसे वह सहानुभूति चाहते थे; उनकी हालत और खस्ताहाल निकली। वे ग़ालिब से अधिक अत्याचार की तलवार से घायल थे। वे इनकी तुलना में ज्यादा लाचार और मजबूर थे। इस शेर में शायर यह कहना चाहता है कि दिलासे अक्सर झूठे होते हैं।

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

प्यार में जीना और मरना बराबर होता है। मोहब्बत हो जाने पर जीने और मरने का अंतर मिट जाता है लेकिन जिससे सच्ची मोहब्बत हो जाती है; वह अक्सर प्यार की कीमत नहीं समझता। लेकिन प्यार करने वाला बहुत मजबूर होता है क्योंकि प्यार विकल्पहीन होता है। इसलिए ग़ालिब उसी प्रेमिका को देखकर जीते हैं और उस पर जान छिड़कते हैं जो इन्हें जरा भी भाव नहीं देती है।

जरा कर जोर सीने पर कि तीर-ए-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

ग़ालिब अपने महबूब से उम्मीद करते हैं कि वह अगर इनकी न हो सकी तो वह ज़ालिम अपनी आंखों से ऐसा बाण चलाए कि इनका दिल ही निकलकर बाहर आ जाए। दिल निकल जाएगा तो जान भी निकल जाएगी। महबूब अगर न मिल सका तो जीने का कोई अर्थ नहीं है।

खुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही काफ़िर सनम निकले

प्यार में धोखा खाए ग़ालिब मक्का पहुंच जाते हैं। एक बार विश्वास टूट जाने पर व्यक्ति जल्दी किसी पर भी विश्वास नहीं करता है इसलिए मक्का में भी उसी अविश्वास के बादल इन पर छाए हुए हैं। यह लोगों से दरख्वास्त करते हैं कि काबे पर पड़े हुए मखमली पर्दे को कोई न हटाए। जो भी हटाएगा; वह ज़ालिम होगा। ग़ालिब को डर है कि कहीं चादर हटाने पर उसके अंदर से वही जिद्दी महबूबा न निकले जो पहले ही इनको ठुकरा चुकी है। उन्हें शंका है कि उनकी मुराद यहां पूरी नहीं होगी।

कहां मैखाने का दरवाजा ‘गालिब’ और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले

जो आज मुझे नसीहत दे रहे हैं कि शराब क्यों पीते हो। एक ऐसा भी समय था कि मैं मैखाने से निकल रहा होता था और वे उसमें जा रहे होते थे। कई बार तो उन मुल्ला से मुलाकात तो शराबखाने के दरवाजे पर ही हो जाती थी। वे आज मुझे नसीहत देते हैं। बहुत उपदेश देते हैं जबकि यही काम वह भी किया करते थे।
Note - इसको youtube पर सुनने के लिए इस Link पर Click करें
शब्दार्थ -
ख्वाहिश - इच्छा
चश्म-ए-तर नम आंखें, भीगी आंखें
दम-ब-दम - हर वक्त, हर समय, हर क्षण
खुल्द – जन्नत, स्वर्ग
बेआबरु - अपमानित
कूचे – गली
कामत – कद
दराजी – लंबाई
तुर्रा-ए-पुर-पेचोख़म – घुंघराले बाल, curls in the hair
मनसूब – जुड़ना, संबंधित
बादा-आशामी – शराबनोशी, having to do with drinks
जामे-जम - जमशेद बादशाह का प्याला। जमशेद प्राचीन ईरान का बादशाह था। उसके शराब पीने वाले प्याले को जामे-जम कहा जाता है। इस शराब के प्याले में झांककर वह दुनिया की सारी गतिविधि को जान लेता था।
तव्वको – आशा, उम्मीद, expectation
खस्तगी – खराब दशा, घायल होना, जोटिल होना, injury
खस्ता-ए-तेग़ सितम – अत्याचार की तलवार से घायल
काफ़िर - बुत, प्रेमिका की मूरत
क़ाबे – House Of Allah In Mecca
वाइज़ – धर्मोपदेशक, preacher


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