मंगलवार, 2 जून 2020

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लल द्यद

डॉ. अवधेश कुमार पान्डेय


लल द्यद भक्तिकाल की एक महत्वपूर्ण संत हैं। भक्तिकाल एक अखिल भारतीय आंदोलन था जिसमें देश के कोने-कोने से संतों और भक्तों ने अपनी वाणी से समाज को एक दिशा दी। इस कड़ी में कश्मीर की लाल द्यद का नाम बहुत महत्वपूर्ण है। कश्मीर तीन शब्दों से मिलकर बना है - क (जल), अश्म (पत्थर) और ईर (निकलना)। यानि जल और पत्थर से बनी धरती जिसे धरती का स्वर्ग का माना जाता है। लाल द्यद ने कश्मीरी भाषा में रचनाएं की जिसे वाख कहा जाता है। वाख का शाब्दिक अर्थ है - ‘वाक्य’।
लल द्यद कई नामों से जानी जाती हैं। इनको ललेश्वरी, ललारिफा, लल, लल देवी, लालीश्री इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। लल का अर्थ होता है ‘तोंद’ और द्यद का कश्मीरी भाषा में अर्थ होता है ‘दीदी’। इस तरह से यह तोंद वाली दीदी यानि लाल द्यद के नाम से प्रसिद्ध हुई। लाल द्यद वाख गाती हुई जंगल-जंगल भटकती थी। अग्निशेखर जिन्होंने लाल द्यद के वाख का हिंदी में अनुवाद किया है। उन्होंने कहा है - लल द्यद माउंट एवरेस्ट हैं। पिछले पांच हजार वर्ष में कश्मीर की संस्कृति और सभ्यता की एकमात्र प्रतिनिधि हैं.. इस तरह लल द्यद कश्मीर है और कश्मीर लल द्यद है।"

लल द्यद निर्गुण परंपरा की संत मानी जाती हैं। कश्मीर में निर्गुण संत परंपरा के कई संत रह चुके हैं। इनमें शेख-उल-आलम, नुन्द ऋषि, मिर्जा काक, शाम बीबी इत्यादि प्रमुख हैं। इन सबमें ललेश्वरी सबसे महत्वपूर्ण संत हैं।

जीवन परिचय

 ललेश्वरी का जन्म 1320 ई. में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कश्मीर के पांपोर नामक जगह के सिमपुरा गांव में इनका जन्म हुआ था। इनका परिवार काफी पढ़ा-लिखा था। शैव संतों का इनके घर आना जाना लगा रहता था। इसलिए बचपन से ही धर्म और दर्शन को यह समझने लगी थी।
12 वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। ससुराल में पति और सास के अत्याचारों से तंग आकर इन्होंने घर छोड़ दिया और जंगलों में घूम-घूमकर वाख कहने लगी। इनके पति का नाम सोनपंडित या सोम पंडित मिलता है। इनके गुरु का नाम सिद्धमोल था। इन्होंने लल द्यद को शिक्षा दी कि बाहर से मुख मोड़ और भगवान को अंदर खोज। लाल द्यद कहती हैं कि तभी से यह बात मुझे अंदर तक छू गई और मैं निर्वस्त्र होकर नाचने लगी।
 लल ने मूर्ति पूजा को अनुचित बताया। वे कहती हैं कि मंदिर भी पत्थर का है और मूर्ति भी पत्थर की है। अब आप लोग ही बताइए कि मैं किस पत्थर की पूजा करूं -

देव पत्थर
देवल भी पत्थर
ऊपर–नीचे
एक समान ही स्थिति
रे पंडित,
 तू पूजा किसकी करेगा?
इसीलिए कहती हूं
अपने मन और प्राण को
एक कर दे!

लल द्यद कहती हैं कि इन पत्थरों के सामने घास खाकर दूध और ऊन देने वाले भेड़ और बकरियों की बलि देना उचित नहीं है।
लल द्यद जब साधना करती थी तो उन्हें अपने कपड़ों का भी ध्यान नहीं रहता था। कई लोगों का मानना है कि वह निर्वस्त्र घूमती थी।
लल ने समाज से बहुत अपमान और उपेक्षा झेली थी और अपने समाज की बुराइयों को नजदीक से देखा था। वे कहती हैं कि इस समाज में लड़की को मारना ब्रह्म हत्या के समान पाप समझा जाता है लेकिन पत्नी को दरवाजे पर पड़ी कुतिया समझा जाता है। लल कहना चाहती हैं कि पत्नी भी एक स्त्री है और उसे भी पूरा सम्मान मिलना चाहिए।
लल कहती हैं - मैंने हृदय की सारी मैल जला डाली, इच्छाओं को भी मैंने मार डाला और उनके द्वार पर अंचल पसारे बैठ गई, तब कहीं जाकर मेरा लल नाम प्रसिद्ध हुआ।  
इनकी मृत्यु 1391 ई. में जम्मू-श्रीनगर मार्ग के पास स्थित एक गांव में हुई थी।

वाख


इन्होंने वाख मौखिक ही कहे। संस्कृत उस समय कश्मीर में साहित्य और दर्शन की भाषा थी लेकिन लल ने आम जनता की भाषा कश्मीरी में ही वाख कहे। उसे ही लोगों ने याद रखा। इसे बहुत बाद में अन्य लोगों ने लिखा। इनके वाखों की संख्या लगभग 200 है। लल का पहला उल्लेख 1730 के ‘तारीक़-ए-कश्मीर में मिलता है। 1920 में जार्ज ग्रियर्सन ने पंडित मुकुन्द शास्त्री की मदद से 135 वाखों को ‘लल वाक्यानि’ के नाम से संकलित किया। जिस तरह से हिंदी में कबीर के दोहे, मीराबाई के पद और तुलसीदास की चौपाई प्रसिद्ध है। उसी तरह से कश्मीर में लल द्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। लल ने वाख में अपने जीवन अनुभवों और संघर्षों को शब्दों में उकेरा है। 
केसर के फूल

कश्मीर का समाज और संस्कृति इनके वाखों से झांकती है। इसमें केसर की क्यारियों और रेहान के फूलों की खुशबू है। लल के कुछ समय बाद हुई हब्बाख़ातून लल के वाखों से काफी प्रभावित थी। वाख से मिलती जुलती रचनाएं उसी शैली में हब्बाख़ातून ने की हैं।
लल के वाख मूर्ति पूजा, बलि और अन्य पाखंडों का जमकर विरोध किया है। इनके गुरु ने इन्हें बाहर से भीतर झांकने की शिक्षा दी थी। जब इन्होंने अपने अंदर झांका तो वह ईश्वर इनके अंदर ही मिला। यह कहती हैं कि मैं लल द्यद प्रेम के उस परम शक्ति को ढूंढ़ने निकल पड़ी। उसे ढूंढ़ते-ढूंढते रात दिन बीत गए। अंत में मैंने देखा तो वह पंडित मेर घर में विद्यमान था। बस, तभी से मेरी अंतसार्धना का मुहूर्त निकल आया।
यह भगवान से कहती हैं कि आपने इस संसार का कोना-कोना रचा है और हर रूप में आप ही हो फिर आपकी पूजा क्या चढ़ाकर करूं - तू ही गगन, तू ही भूतल, तू ही दिन, पवन और रात। अर्घ्य, चंदन, पानी तू ही। तू ही सब कुछ है तो फिर तुझे क्या चढ़ाऊं।
     गुरु से यह बार-बार पूछती रहती हैं कि जिसने इस दुनिया में सब कुछ बनाया; उसका नाम क्या है? गुरु हमेशा कहते उसका नाम ‘कुछ नहीं’ है लेकिन उसी ने इस दुनिया को बनाया है। नाम तो इंसानों ने रखे हैं। वाख में लल कहती हैं गुरु से मैंने हजार बार पूछा कि ‘जिसे कुछ नहीं’ कहते हैं, उसका नाम क्या है? पूछते-पूछते मैं थक गई और मुरझा गई, (अंत में) मैं यही समझी कि कुछ नहीं से ही सब कुछ निकला है।
     वह कहती हैं कि मन बहुत चंचल होता है। वह आपको अनेक विषय वासनाओं में भटकाता रहता है। इसलिए वह किसी कार्य में सफल होने के लिए मन को काबू में रखना सबसे जरूरी मानती हैं। मन हमेशा दूसरों की सम्पत्ति पर नजर रखता है और सबसे तुलना करता रहता है। लल कहती हैं इस मन रूपी गधे को काबू में रखो। यह लोगों के केसर की क्यारी खा जाएगा और तुझे दंड स्वरूप तलवार की मार सहनी पड़ेगी।
     लल कहती हैं कि सबको अपने भगवान की तलाश खुद करनी चाहिए। कोई किसी को ईश्वर तक जाने का मार्ग बता सकता है। उस मार्ग पर तो उस साधक को ही चलना पड़ेगा। इसलिए लल कहती हैं रे गाफिल! तू तेज़ कदमों से चल अभी भी समय है अपने यार को ढूंढ़। तू पंख पैदा कर और परवाज़ कर। अभी भी समय है अपने यार को ढूंढ़।
     लल मानती हैं कि मूर्ख व्यक्ति को समझाना बहुत कठिन काम है। कई बार तो आप हजार कोशिशें करके भी हार जाते हैं। लल कहती हैं कि मैं दक्षिणी मेघों को भंग कर सकती हूं, सागर से जल उलीच सकती हूं, असाध्य की भी चिकित्सा कर सकती हूं, किंतु मूर्ख को समझा नहीं सकती।
     लल कहती हैं कि जीवन कठिनाइयों से भरा है और साधना का मार्ग तो और भी कठिन है। जिस तरह से कपास से कपड़ा बनने तक कपास को कई चरणों से गुजरना पड़ता है। वैसे ही साधना के मार्ग में किसी को बहुत सारे कष्टों से गुजरना पड़ता है। लल कहती हैं कि पहले साबुन और सोडा डालकर धोबी ने मुझे पत्थर पर पटक-पटक कर धोया, फिर दर्जी ने मेरे अंग-अंग पर कैंची फिराई और तब कहीं जाकर मैं परम गति को पा सकी।



     लल के वाखों में कश्मीरी लोक कहावतों और लोक रीतियों के उदाहरण भरे पड़े हैं। अपने वाखों में यह कहती हैं बिच्छू बूटी को दूध से सींचना नहीं, सर्पिणी के अंडों को सेना नहीं, बालू पर बीज बोना नहीं, भूसे की रोटी पर तेल बर्बाद करना नहीं। इस तरह से लोक व्यवहार के ढेर सारे ज्ञान हमें लल वाख से मिलते हैं। लल भक्तिकाल की कश्मीरी भाषा की उच्चकोटि की निर्गुण संत हैं। भक्ति साहित्य के संतों में इनका नाम बहुत आदर से लिया जाता है।



5 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद, सुझाव देते रहिए

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  2. There are not much works found about Lal in Hindi Literature. You have written a brilliant article about her covering all aspects and informations which are difficult to find at other places. A great work indeed. Keep up the good efforts and more powers and inspiration to you for your future articles.

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    1. Thank you for valuable suggestion. I am trying to give authentic and standard academic contents through this blog. Looking forward to your comments on next articles too. Keep visiting.

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