गुरुवार, 5 जून 2025

आधे अधूरे ‘Aadhe Adhure’

 

आधे अधूरेः कथ्य एवं आधुनिक बोध

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

मोहन राकेश ने तीन नाटकों की रचना की – असाढ़ का एक दिन (1958), लहरों के राजहंस (1963) और आधे-अधूरे (1969)

आधे अधूरे में मुख्य रूप से विघटन की प्रक्रिया का अंकन है। यह विघटन व्यक्ति, परिवार, समाज, देश सभी जगह हो रहा है। यह नाटक सावित्री नामक एक स्त्री की कथा है। सावित्री किसी ऐसे पुरुष के साथ रहना चाहती है जिसमें कोई कमी न हो और वह पूर्ण पुरुष हो। इस पूर्णता की खोज में सावित्री चार पुरुषों के संपर्क में आती है लेकिन उसे सबमें कोई न कोई कमी दिखायी देती है। अन्ततः वह इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि पूर्णता किसी में भी नहीं है। सब 'आधे-अधूरे' हैं। सावित्री के संपर्क में आया चौथा पुरुष मिस्टर जुनेजा कहता है – “तुम्हें लगता है, तुम चुनाव कर सकती हो लेकिन दाएं से हटकर बाएं , सामने से हटकर पीछे, इस कोने से हटकर उस कोने में - क्या सचमुच कोई चुनाव नजर आया है तुम्हें?"

‘आधे-अधूरे’ नाटक का हर पात्र खंडित व्यक्तित्व लिए हुए है। पति-पत्नी के बीच का तनाव एक आम बात है। इस नाटक में जिस परिवार का चित्रण है वे सभी जन बस एक साथ रह लेते हैं; किसी को एक दूसरे के सुख-दुख से कोई सरोकार नहीं है। सावित्री कितना कुछ एक साथ अपनी मुठ्ठी में भर लेना चाहती है, परिणाम यह हुआ कि उसकी मुठ्ठी में जो था; वह भी फिसलता चला गया। महेन्द्र सावित्री को पति के रूप में प्राप्त था, पर वह तो कुछ और प्राप्त करना चाहती थी। परिणाम यह हुआ कि महेन्द्र भी उसके हाथ से निकल गया।

मोहन राकेश प्रयोगधर्मी नाटककार हैं। उन्होंने अपने नाटकों के जरिए अस्तित्ववादी मान्यताओं को प्रत्यक्ष किया है। उनके पात्र प्रमाणिक जीवन के चुनाव की समस्या से जूझ रहे हैं। व्यक्तित्व विभाजन उनके जीवन का सच है।

मोहन राकेश ने तीन नाटक लिखे – असाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे। पहले दो नाटकों की कथावस्तु अतीत से जुड़ी है लेकिन आधे-अधूरे की कथावस्तु का संबंध समकालीन जीवन से है। आधे-अधूरे के नाटककार ने महानगरीय जीवन की बिडंबनाओं (वैवाहिक) से पाठक का साक्षात्कार कराया है। आज के हर मनुष्य का जीवन आधा अधूरा है। लेकिन वह अधूरेपन को भूलकर एक काल्पनिक पूरेपन की तलाश में है। इसकी नायिका सावित्री कमाती है और उसका पति महेन्द्रनाथ उसकी कमाई पर पलता है। सावित्री अपने पति महेन्द्र से कहती है - "आदमी होने का मतलब है, उसका अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियस।" सावित्री पूर्ण पुरुष की तलाश में पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन, पुरुष चार अर्थात सिंहानिया, मनोज, जगमोहन और जुनेजा के संपर्क में आती है। लेकिन इन सबको अधूरा पाकर अपने पति के साथ शेष जीवन काटने को तैयार होती है। पति भी उससे पिंड छुड़ाने के लिए भागता है लेकिन लौटकर उसी के साथ सह-अस्तित्व को मजबूर हो जाता है।

सावित्री की विकलता का उत्तर पुरुष चार मिस्टर जुनेजा देता है। पुरुष चार कहता है कि महेन्द्रनाथ को छोड़कर इनमें से तुम किसी के साथ भी ब्याही जाती तो साल-छह महीने में तुम्हें यही अनुभव होता। तुम्हारी समस्या यह है कि तुम कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना चाहती हो लेकिन इतना कुछ कहीं एक साथ नहीं मिलता। यहां नाटककार ने प्रमाणिक जीवन के चुनाव  की समस्या को स्थापित कर यह बताया है कि मनुष्य अपने अधूरेपन की नियति के लिए अभिशप्त है। वह सह-अस्तित्व के लिए मजबूर है। मोहन राकेश ने इस नाटक में व्यक्तित्व विभाजन दिखाने के लिए एक काले सूट वाले व्यक्ति से महेन्द्र, सिंहानिया, जुनेजा, मनोज और जगमोहन का अभिनय कराया है।

नाट्य भाषा

मोहन राकेश एक कुशल नाट्य शिल्पी थे। अतः उन्होंने अपनी सभी नाट्य कृतियां रंगमंच की दृष्टि से लिखी हैं। उनके नाटकों की भाषा, सरल, सहज, प्रवाहपूर्ण और पात्रानुकूल है। संस्कृत की क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग उन्होंने अपनी कृतियों में नहीं किया है। इनके स्थान पर उर्दू और अंग्रेजी की प्रचलित शब्दावली का प्रयोग 'आधे अधूरे' की भाषा में दिखायी पड़ता है। अधिकांश रंगकर्मियों ने 'आधे-अधूरे' की भाषा को रंगमंच के लिए उपयुक्त माना है। ओम शिवपुरी कहते हैं कि "इस नाटक की एक महत्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके।" प्रसिद्ध रंग निर्देशक सत्यदेव दुबे के अनुसार – “Till date ‘Aadhe Adhure’ is the most successful among the plays produced in Hindi anywhere in India.”

 

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