गुरुवार, 5 जून 2025

Andha Yug अंधा युग

 

अंधा युग (1954)

कथानक, पात्र और प्रतीक योजना

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

अंधा युग का कथानक महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण के गोलोकगमन के क्षण तक के कालखंड को अपने में समाविष्ट किए हुए है। नाटक के प्रारंभ में मंगलाचरण के उपरांत यह उद्घोषणा की गई है कि इस कृति में उस युग का वर्णन किया गया है; जब धर्म, अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे और सत्ता उनके हाथ में होगी जो पूंजीपति हैं। नकली चेहरे वालों को महत्व मिलेगा और राजशक्तियां लोलुप होकर जनता का शोषण करेंगी।

महाभारत का युद्ध भी एक ऐसा ही युद्ध था। यह एक ऐसे युग की कथा थी जिसमें मर्यादा की डोरियां उलझी हुई हैं जिसे सिर्फ कृष्ण ही सुलझा सकते हैं। इनके अतिरिक्त सब अंधे थे, पथभ्रष्ट थे। वे सब अपने अन्तर की अंधगुफाओं के वासी थे। यह कथा उन्हीं अंधों की कथा है, या फिर अंधों के माध्यम से ज्योति की कथा है।

धर्मवीर भारती के अंधा युग में महाभारत के अंतिम दिन और आगे घटने वाली घटनाएं ली गई हैं। जिसमें निराशा, अनास्था और घुटन से उत्पन्न भग्न मनःस्थितयां चित्रित हैं। मूल्यों के क्षरित होने और मर्यादाओं के टूटने से आज का मनुष्य स्वार्थंधता, रक्तपात और हिंसा की प्रवृत्तियों से घिर गया है। यह नाटक मनुष्य को उन्हीं वास्तविकताओं के साथ पकड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही विश्व मानव संभावित विश्वयुद्ध को लेकर सशंकित रहा है। इस नाटक में अश्वत्थामा द्वारा प्रलयंकारी ब्रहास्त्र छोड़ना, अणुबम और हाइड्रोजन बम की विध्वंसात्मकता की सांकेतिक व्यंजना करता है।

यह नाटक युयुत्सु की नियति के संबंध में अस्तित्ववादी अवधारणाओं को प्रतिष्ठित करता है। युयुत्सु सत्य का पक्ष लेकर पाण्डवों की तरफ से लड़ता है लेकिन जब छल से अपने सौतेले भाइयों को मारा जाता देखता है तो यह सोचने पर विवश हो जाता है कि ‘अच्छा था यदि मैं समझौता कर लेता असत्य से।‘ अंततः वह घोर निराशा से गुजरता हुआ आत्महत्या कर लेता है।

धृतराष्ट्र अपने अंतर्गुहा में बंद अंतर्मुखी व्यक्ति का प्रतीक है जिन्हें सामाजिक मर्यादाओं का बोध ही नहीं है। वे अपनी अंधेरी दुनिया वाली कारा में कैद हैं। गांधारी मनुष्य के मष्तिष्क के अंधेरे गहवर में निवास करने वाली उन पशु प्रवृत्तियों का प्रतीक है जिसने सब कुछ देखते हुए भी अपनी आंखों पर मोह की पट्टी बांध ली है। कृष्ण और अश्वत्थामा इस नाटक के दो बड़े प्रभावशाली लेकिन दो परस्पर विरोधी पात्र हैं। वृद्ध याचक भविष्य का प्रतीक है। दो प्रहरी युद्ध न चाहने वाली जनता के प्रतीक हैं। इसमें निरर्थकता बोध बहुत गहरा है। वे कहते हैं 'कुछ भी रक्षणीय नहीं, फिर भी हम प्रहरी हैं।‘

1962 में सत्यदेव दुबे ने बंबई में और 1964 में इब्राहिम अल्काजी ने दिल्ली में अंधायुग का सफल मंचन किया।

आधुनिकता बोध

महाभारत की घटनाओं को कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि उनकी संगति आधुनिक युग की विसंगतियों से ठीक-ठीक बैठ जाती है और महाभारत का वह विनाशकारी युद्ध आधुनिक युग के अंधेपन को पूर्णतः व्यक्त कर देता है-

“युद्धोपरांत

वह अंधा युग अवतरित हुआ

जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियां, आत्माएं सब विकृत हैं।“

हर युग के बाद अंधा युग ही अवतरित होता है, चाहे वह महाभारत हो या वर्तमान समय का विश्वयुद्ध। युद्ध के बाद सबके मन में अंधा युग उतर आता है केवल मन में बचती है- अश्वत्थामा की पशुता, बर्बरता और प्रतिशोध की विध्वंसकारी भावनाएं, संजय की अकर्मण्यता एवं निरर्थकता, विदुर का संशय और युयुत्सु की अनास्था। युद्ध जिन मूल्यों की स्थापना के लिए लड़ा जाता है, उन मूल्यों का ह्रास ही युद्ध में होता है। अंधा युग में भी युद्ध जीते हुए युधिष्ठिर अपने को हारा हुआ अनुभव कर रहे हैं –

“ऐसे भयानक महायुद्ध को

अर्द्धसत्य, रक्तपात, हिंसा से जीतकर

अपने को बिल्कुल हारा हुआ अनुभव करना

यह भी यातना ही है।“

अंधी प्रवृत्तियों से संचालित मानव अपने भीतर के मनुष्यत्व को खो देता है और वह सभी मर्यादाओं का उल्लंहन कर देता हैः

“टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा

उसको दोनों पक्षों ने तोड़ा है

पाण्डवों ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा।“

कथ्य एवं शिल्प

अंधा युग उन कालजयी कृतियों में से एक है जो कभी अप्रासांगिक नहीं हो सकती। सम्प्रति युद्ध की त्रासदी मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है और परमाणु अस्त्रों की प्रलयंकारी विनाशक क्षमता से सम्पूर्ण विश्व आशंकित एवं भयाक्रांत है। युद्ध की क्या उपलब्धि है और अन्ततः युद्ध में विजय कितनी बड़ी कीमत चुकाकर प्राप्त की जाती है - ऐसे प्रश्न हैं जो मानव बुद्धि एवं हृदय को सदैव मथते रहे हैं। 'अंधा युग' में इन्हीं प्रश्नों से उत्पन्न अकुलाहट एवं बेचैनी को अभिव्यक्त करने का ईमानदारी से किया गया प्रयास है।

अंधा युग की कथा का आधार भले ही पौराणिक हो, किंतु उसमें आधुनिक युग की संवेदना और भावबोध विद्यमान है। गीतिनाट्य शैली में रचित इस बहुचर्चित कृति के कथानक में, पात्रों में और यहां तक कि शीर्षक में भी प्रतीकात्मकता का निर्वाह किया गया है।

अंधा युग की कथा सुनियोजित, गतिशील, प्रवाहपूर्ण एवं उद्देश्यपूर्ण है। अंकों के बीच में 'कथागायन' पद्धति का सहारा लेकर रोचकता और कौतूहल उत्पन्न किया गया है। संवादों में लय, अर्थ और गति है। गीतिनाट्य में भाषा प्रमुख तत्व मानी जाती है क्योंकि भावों की प्रेषणीयता में केन्द्रीय सूत्र का संचालन वही करती है। भाषा में पात्रानुकूलता, संप्रेषणीयता, ध्वनि सौन्दर्य, प्रतीकात्मकता जैसे गुण विद्यमान हैं। साथ ही वह सरल और स्पष्ट भी है।

रंगमंच की दृष्टि से अंधा युग बहुत सफल है। लिखे जाने के बाद इसका रेडियो रूपांतर भी प्रस्तुत हुआ जिसके कारण इसके संवादों की लय और भाषा को मांजने में काफी सहायता मिली।

प्रयोगधर्मिता

अंधा युग के मंच विधान की तकनीकि जानकारी भारती जी ने निर्देश के अंतर्गत दे रखी है। वे लिखते हैं, “मंच विधान जटिल नहीं है। एक पर्दा पीछे स्थायी रहेगा। उसके आगे दो पर्दे होंगे।" अंधा युग में जहां दो अंकों के बीच अंतराल है; वहीं कथागायक कथागायन के माध्यम से दर्शकों को कथानक समझाता है। अंधा युग के दोनों प्रहरी घटनाओं पर अपनी व्याख्या देते चलते हैं। अंधा युग में कुछ दृश्य ऐसे अवश्य हैं जिन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत करना संभव नहीं, यथा- 'कौरव नगरी पर लाखों गिद्ध का उड़ना,' 'वन में दावाग्नि फैलना; इत्यादि। रेडियो रूपांतरण में तो इनका प्रस्तुतीकरण ध्वनि प्रभाव से किया जा सकता है पर रंगमंच पर इन दृश्यों को हटाना ही पड़ेगा। भारती जी ने अंधायुग में विस्तृत रंग संकेतों का विधान किया है। यथा- सैनिकों का घिसटते हुए आना, अश्वत्थामा द्वारा गला दबोच लेना, संकेत से पानी मांगना, घिसटते हुए भागना आदि। भारती जी ने प्रकाश व्यवस्था का भी विस्तृत संकेत किया है। इसके पात्र भले ही महाभारतकालीन हों किंतु आधुनिक संदर्भों में विभिन्न मनःस्थितियों और भावनाओं के प्रतीक बनकर आए हैं। धृतराष्ट्र, अश्वत्थामा, संजय, युयुत्सु सभी प्रतीकात्मक पात्र हैं। संजय की तटस्थता उसकी व्यर्थता को निम्न पंक्तियों में प्रमाणित करती है –

“मैं दो पहियों के बीच लगा हुआ

एक छोटा सा निर्थक शोभा चक्र हूं।"

शब्दों और वाक्यों की पुनुरूक्ति से पात्र के हृदय की जिज्ञासा एवं कौतूहल का बोध होता है। गांधारी की उक्तिः

“फिर क्या हुआ?

संजय, फिर क्या हुआ?”

भाषिक अभिव्यक्ति

गीतिनाट्य में भाषा की विशेष भूमिका रहती है, क्योंकि भावों के प्रेषण में सारे सूत्रों का संचालन वही करती है। बोलचाल की भाषा के निकट होते हुए भी अंधा युग की भाषा परिमार्जित और शक्ति संपन्न है। भाषा में लाक्षणिकता, अलंकारिकता, ध्वनि सौंदर्य जैसे गुण भी हैं। भारती जी ने इस कृति में विशेषणों का सभिप्राय प्रयोग करते हुए भाषा को नई अर्थवत्ता दी है। यथा: अजब युद्ध, अंधी संस्कृति, रोगी मर्यादा, भूखा बादल, ज्ञानहीन आस्थाएं, अंध गह्वर, झूठा भविष्य आदि।

अंधा युग में कई जगह लाक्षणिक प्रयोगों से भी अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान की गयी है। जैसे –

“आज नहीं बच पाएगा

वह इन भूखे पंजों से।"

यहां ‘भूखे पंजों’ में लाक्षणिक प्रयोग है। एक अन्य प्रयोग हैः

“गांधारी पत्थर थी।“

यहां गांधारी को पत्थर कहा गया है। इसका लक्ष्यार्थ है कि गांधारी संजय से युद्ध कथा सुनते-सुनते पत्थर की तरह भावशून्य और कठोर हो गयी थी। मातृवंचित, कोटि-कोटि योजन, पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित, कूटबुद्धि, युद्धलिप्सा, ह्रासोन्मुख जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग है। वहीं बिलबिलाना, रेंगना, माथा, खिड़की जैसे लोकभाषा के शब्दों का भी प्रयोग है।

अश्वत्थामा का चरित्र चित्रण

अश्वत्थामा का आगमन अंधायुग के द्वितीय अंक में होता है। अपने पिता द्रोणाचार्य की अधर्मयुक्त हत्या से वह अत्यंत पीड़ित है। इस हत्या से अश्वत्थामा में निहित शुभ और कोमलतम भाव सदा के लिए स्थगित हो गए और वह अब अंधा बर्बर पशु है। 'वध' अब उसके लिए एक मनोग्रंथि बन चुकी है। उसके जीवन का अब केवल एक ही लक्ष्य है- 'वध, केवल वध।'

इसी घृणा से परिचालित अश्वत्थामा संजय का गला दबोच लेता है। वृद्ध याचक का वध कर डालता है जिसने दुर्योधन के विजय की भविष्यवाणी की थी। वह घायल दुर्योधन से सेनापति का पद प्राप्त करके पाण्डव शिविर में ही द्रोणाचार्य का गला काटने वाले धृष्टधुम्न की हत्या कर देता है। वह गांधारी से वादा करता है कि जैसे तुम्हारी कोख कृष्ण ने पुत्रहीन कर दी; वैसे ही मैं भी उत्तरा को पुत्रहीन कर दूंगा। अश्वत्थामा अपना ब्रहमास्त्र उत्तरा के गर्भ पर छोड़ देता है। वस्तुतः भीम द्वारा दुर्योधन की अधर्मयुक्त हत्या और द्रोणाचार्य की छल से हत्या से वह बहुत कुंठित है। वह कहता है कि सारी नीति, मर्यादा, धर्मबुद्धि बस मुझ पर ही लादी जाती है, पाण्डवों से कोई कुछ नहीं कहता। उन्होंने भी तो नीति, धर्म एवं मर्यादा का हनन किया है? अश्वत्थामा कहता है –

“भूल नहीं पाता मैं

मेरे पिता अपराजेय थे

अर्धसत्य से ही युधिष्ठिर ने उनका

वध कर डाला।“

युयुत्सु का चरित्र चित्रण

युयुत्सु धृतराष्ट्र का वह पुत्र है जो पाण्डवों के पक्ष में जाकर अपने ही कौरव भाइयों से लड़ा था। वह सत्य पर दृढ़ रहा और इसी सत्य, न्याय, धर्म की रक्षा के लिए वह दुर्योधन का पक्ष त्यागकर पाण्डवों से जा मिला। युयुत्सु का अपराध केवल इतना है कि वह सत्य पर दृढ़ रहाः

“मेरा अपराध सिर्फ इतना है

सत्य पर रहा मैं दृढ़

मैं भी हूं कौरव

पर सत्य बड़ा है कौरव वंश से।“

विजयी होकर लौटने पर नागरिक उसे देखकर द्वार बंद कर लेते हैं और माता गांधारी तक उस पर ताने कसती हैं-

“बेटा,

भुजाएं ये तुम्हारी

पराक्रम भरी थकी तो नहीं

अपने बंधु जनों का वध करते-करते।।“

पीड़ा, उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान से युयुत्सु की आत्मा कराह उठती है और वह अर्द्धविक्षिप्त हो जाता है –

“मेरी यह परिणति है

स्नेह भी अगर मैं दूं

तो वह स्वीकार नहीं औरों को

जय है यह श्रीकृष्ण की

जिसमें मैं वधिक हूं

मातृवंचित हूं

सबकी घृणा का पात्र हूं।“

युयुत्सु के आंतरिक मन की चीरफाड़ “पंख, पहिए और पट्टियां" में की गई है और वह अपने को उस पहिए की भांति मानता है जो पूरे युद्ध के दौरान गलत धुरी में लगा रहा। उसकी यह सोच यह प्रमाणित करती है कि अब सत्य, न्याय और धर्म में उसकी आस्था हट चुकी है, कृष्ण से उसका मोहभंग हो चुका है।

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