रविवार, 8 जून 2025

रघुवीर सहाय Raghuvir Sahay

 

रघुवीर सहाय

(जन्म- 9 दिसंबर 1929 लखनऊ, मृत्यु - 30 दिसंबर 1990 दिल्ली)

डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय

रघुवीर सहाय नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। सहाय जी प्रतीक, कल्पना, दिनमान और नवभारत टाइम्स के संपादक मंडल में रहे हैं। इनके चाट काव्य संग्रह प्रकाशित हुए - 'सीढ़ियों पर धूप में', 'आत्महत्या के विरूद्ध', 'हंसो-हंसो जल्दी हंसो' और 'लोग भूल गए हैं' प्रकाशित हुए हैं। रघुवीर सहाय को ‘दूसरा सप्तक’ में भी स्थान मिला।

रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति और उससे जुड़े तमाम प्रश्नों को प्रस्तुत किया गया है। जनतंत्र के तमाशे को "धूमिल" की भांति रघुवीर सहाय ने भी अनुभव किया है, इसलिए वे कहते हैं –

“हर संकट में भारत एक गाय है,

ठीक समय पर ठीक बहस कर नहीं सकती राजनीति।

बाद में जहां कहीं से भी शुरू करो,

बीच सड़क पर गोबर कर देता है विचार।।"

रघुवीर सहाय एक्सरे की तरह आने वाले समय का अनुमान कर लेते हैं और यथार्थ को बेबाकी से हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं –

“पढ़िए गीता बनिए सीता। फिर इन सबमें लगा पलीता।।

किसी मूर्ख की हो परिणीता। निज घर बार बसाइए।।

होएं कंटीली, आंखें गीली, लकड़ी सीली, तबियत ढीली।

 घर की सबसे बड़ी पतीली भरकर भात पसाइए।“

रघुवीर सहाय ने दूसरा सप्तक में कहा है – “विचारवस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों।“ सहाय जी ने अपने समय और समाज को बहुत गहराई में उतर कर देखा है। वे जनवादी व्यवस्था के समर्थक थे इसलिए 'अधिनायक' कविता में वे अधिनायक और भारत भाग्य विधाता पर सवाल उठाते हैं कि राष्ट्रगान में आए हुए यह लोग कौन हैं –

“राष्ट्रगीत में भला कौन वह

भारत भाग्य विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है

कौन कौन वह जनगण मन

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज़ बजाता है।“

रघुवीर सहाय राजनेताओं के झूठे वादों से बहुत आहत थे। नेता हर समय खुद की कुर्सी को असुरक्षित समझकर उसकी रक्षा में लगा रहता है। छोटी सी छोटी बातों में नेताओं को षड्यंत्र की बू आती रहती है –

“जब मैंने कहा यह फिल्म घातक है

इसमें मनुष्य को झूठा दिखाया गया है

तो प्रधानमंत्री नाराज हुए...

यह व्यक्ति मेरे विरूद्ध है।"

      रघुवीर सहाय ने कविता को अपने समय के यथार्थ से जोड़ा और अपने समय के आर-पार देखने में सक्षम बने। इन्होंने अपनी प्रतिभा से वह दृष्टि विकसित की जो सच्चाई को पूरी ईमानदारी और बेबाकी से प्रस्तुत कर सके। वे अपने समय के शोषक और शोषित वर्गों की सही पहचान रखते थे। सहाय जी ने वर्तमान की निर्मम व्याख्या की और भविष्य का स्वप्न भी दिया। इन्होंने ईमानदारी से कहा कि  -

“मैं तुम्हें रोटी नहीं दे सकता न उसके साथ खाने के लिए गम

न मिटा सकता हूं ईश्वर के विषय में तुम्हारा भ्रम”

रघुवीर सहाय के साहित्य में मोहभंग की गूंज सुनाई देती है। उनकी कुछ कविताओं को देखकर यह लग सकता है कि वे लोकतंत्र विरोधी हैं। मगर सच्चाई यह है कि वे लोकतंत्र के मूल्यों के भ्रष्टीकरण से आहत थे। वे सत्ता के उन कार्यों से दुखी थे जिनसे अन्याय और गैरबराबरी को बढ़ावा मिल रहा था। रघुवीर सहाय किसी की शर्तों पर समझौता करने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्हें वह सब कुछ चाहिए था जो वे चाहते थे –

“हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन

‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए।“

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी सूक्ष्मता में सार लिए सारगर्भित टिप्पणी।

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  2. Mere priya kavi hain raghuveer sahay... Tez vyangya aur ek hi vichar bodh unki sbhi kavitaon me dikhta hai...samaazik sarokar hr jgh hai..woh praza k sath khde hain..raja k sath nhi.. raghuveer sahay was a public intellectual in real terms..

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